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भोजपुर में ही भोजपुरी की पढ़ाई बंद

वीर कुंवर सिंह विवि : 25 वर्षों से बिना मान्यता के चल रहा था कोर्स आरा/पटना : राजभवन के निर्देश के बाद बिना मान्यता के पिछले 25 वर्षों से वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में चल रहा भोजपुरी भाषा विभाग बंद हो गया. अब यहां भोजपुरी में पीजी की पढ़ाई नहीं होगी. विवि को आये […]

वीर कुंवर सिंह विवि : 25 वर्षों से बिना मान्यता के चल रहा था कोर्स

आरा/पटना : राजभवन के निर्देश के बाद बिना मान्यता के पिछले 25 वर्षों से वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में चल रहा भोजपुरी भाषा विभाग बंद हो गया. अब यहां भोजपुरी में पीजी की पढ़ाई नहीं होगी. विवि को आये पत्र में लिखा है कि भोजपुरी कोर्स की मान्यता राजभवन से अनुमोदित नहीं है, इसलिए ऐसे कोर्स की पढ़ाई तुरंत बंद कर दी जानी चाहिए.

इधर, राजभवन के आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि विवि अधिनियम के तहत यह प्रावधान है कि किसी भी कोर्स की पढ़ाई के लिए राजभवन की अनुमति या मान्यता जरूरी है. वीर कुंवर सिंह विवि ने भोजपुरी विषय में पीजी की पढ़ाई बिना कुलाधिपति कार्यालय की अनुमति के शुरू कर रखी थी. कोर्स की मान्यता मिले बिना डिग्रियां बांटी गयीं. राजभवन सूत्रों का कहना है कि बिना मान्यता के डिग्री बांटने से छात्र ठगे जा रहे हैं और दूसरे प्रदेशों में बिहार की डिग्री फर्जी करार दी जा रही है. ऐसी सूचना के बाद

कुलाधिपति कार्यालय ने सभी विवि को यह हिदायत दी है कि बिना अनुमति के जिन कोर्स की पढ़ाई विवि में चल रही है, उन्हें तत्काल बंद कर दिया जाये. इधर, विवि सूत्रों के मुताबिक भोजपुरी विभाग को बंद करने से पहले भी कई बार इस बारे में पत्राचार हुआ और मामला कोर्ट तक भी गया. लेकिन, यूनिवर्सिटी यह जवाब नहीं दे पाया कि किन नियमों के तहत कोर्स की पढ़ाई चल रही है. 31 मई, 2013 को आये पहले पत्र में राजभवन ने कुलपति से पूछा था कि किस आधार पर विभाग चल रहा है. इसके बाद कई पत्र आये.

लेकिन, यूनिवर्सिटी कोई उचित जवाब नहीं दे पाया. 15 जुलाई को आये पत्र के बाद आखिरकार यूनिवर्सिटी ने विभाग को बंद कर दिया. हालांकि, इसे शुरू करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है. लेकिन, इस सत्र में विभाग बंद होने से भोजपुरी प्रेमियों में काफी आक्रोश है. इस संबंध में पटना हाइकोर्ट में भी मामला लंबित है, जिसमें बिना मान्यता के भोजपुरी भाषा में पीजी की पढ़ाई को चुनौती दी गयी है.

इस तरह रहा मामला

1991 में ही एचडी जैन कॉलेज, आरा में भोजपुरी की पढ़ाई शुरू हुई. उस समय यह कॉलेज मगध विवि का अंग था. मगध विवि ने ही यहां भोजपुरी की पढ़ाई शुरू करायी थी. इसके बाद 1992 में वीर कुंवर सिंह विवि की स्थापना हुई. इसके बाद 1992 में भोजपुरी विभाग जगजीवन कॉलेज, आरा चला गया. उस समय मगध विवि में जो कोर्स चल रहे थे, उन सभी को वीर कुंवर सिंह विवि ने भी जारी रखा.

अब तक हिंदी विभाग के अधीन ल रहा भोजपुरी विभाग

विवि के कुलपति प्रो लीला चंद साहा ने बताया कि 2005 में एकेडमिक काउंसिल ने भोजपुरी को स्वतंत्र विभाग खोलने के लिए रेशनलाइजेशन कमेटी बनायी. इसने राज्य सरकार से शिक्षकों के लिए पोस्ट मांगा था, लेकिन अब तक टीचर नहीं मिले. अब तक भोजपुरी विभाग हिंदी विभाग के अंदर चल रहा था. टीचरों की बहाली नहीं हुई है. भोजपुरी में 40 सीटें हैं, लेकिन यहां हमेशा 15-20 स्टूडेंट्स ही एडमिशन लेते हैं. कारण कि यहां ऑनर्स की पढ़ाई नहीं है. यूनिवर्सिटी में भोजपुरी की पढ़ाई केवल पीजी में ही है. वहीं, इस विषय की पढ़ाई यूजी में केवल जेनरल और सब्सिडियरी में होती थी. अभी आठ कॉलेजों में इसकी पढ़ाई हो रही है. अब तक ऑनर्स की पढ़ाई शुरू नहीं हुई है.

डिग्री लेनेवाले को चिंतित होने की जरूरत नहीं

विवि के कुलपति प्रो लीला चंद साहा ने कहा कि जिन्होंने अब तक भोजपुरी में पीजी की डिग्री हासिल कर ली, उन्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है. विवि की एकेडमिक काउंसिल पूरी तरह से कोई कोर्स चला सकती है. कोर्स चलाने के लिए एकेडमिक काउंसिल यूनिवर्सिटी की मजबूत बॉडी है. अलग डिपार्टमेंट के साथ वित्तीय शक्ति के लिए राज्यभवन से कोर्स की मंजूरी लेनी होती है. विवि के नियम के अनुसार स्टूडेंट्स को परेशान नहीं होना पड़ेगा. हालांकि, कुलपति ने बताया कि मगध विवि या उस समय के कुलपति के कारण ही विवि के पास कोई कागज मौजूद नहीं है.

मान्यता के लिए जाना पड़ा था कोर्ट

कुलपति ने बताया कि हिंदी के प्रो गजाधर सिंह को ही भोजपुरी विभाग का कार्यभार दिया गया है. इसके बाद 2008 में इन्होंने कोर्स की मान्यता दिलाने के लिए कोर्ट में केस किया, जिसमें राजभवन व सरकार को पार्टी बनाया गया. इसके बाद कोर्स ने राजभवन से इस संबंध में कई बार जवाब मांगा.

वहीं, इस संबंध में राजभवन ने भी विवि से इस संबंध में जानकारी मांगी, लेकिन विवि के पास इसकी कोई जानकारी नहीं थी. इस पर हमलोग कागजी प्रोसेस पूरा करने लगे. इस संबंध में पांच जुलाई को एकेडमिक काउंसिल से कोर्स की मंजूरी मिल गयी है. अब सितंबर में सिंडिकेट की बैठक कर इसे पास किया जायेगा और राजभवन भेज दिया जायेगा. भोजपुरी समय की मांग है. कोर्स की मंजूरी जल्द मिल जायेगी. इसके लिए विवि पूरा प्रयास कर रहा है. स्टूडेंट्स को चिंता करने की कोई बात नहीं है. यह स्वतंत्र विभाग बने, इसकी तैयारी भी जारी रहेगी. भोजपुरी को बेहतर बना दिया जायेगा. टीचर की मांग भी सरकार से की गयी है.

विभाग बंद नहीं होने देंगे : कुलपति

विवि के कुलपति प्रो लीला चंद साहा ने कहा कि यह सही बात है कि राजभवन से आये आदेश के बाद विभाग बंद कर दिया गया है. लेकिन, हम इसे शुरू कराने के लिए प्रयासरत हैं. गत पांच जुलाई को हुई एकेडमिक काउंसिल की बैठक में मान्यता सम्बंधित शर्तों को पूरा कर लिया गया है व सिंडिकेट से पास होने के बाद इसे जल्द ही राजभवन भेजा जायेगा.

जेपी विवि को छोड़ कहीं भोजपुरी की पढ़ाई नहीं

तिलका मांझी विश्वविद्यालय

तिलका मांझी विवि, भागलपुर में अंगिका की पढ़ाई होती है. 2000 से यहां अंगिका की पढ़ाई हो रही है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऑनर्स में अंगिका नहीं होने के कारण पीजी में बहुत कम स्टूडेंट्स जुट पाते हैं.

बीआरबी िवश्वविद्यालय

मुजफ्फरपुर के बीआरएबी विवि में मैथिली की पढ़ाई होती है. बिहार में एकमात्र यहां के एलएस कॉलेज में भोजपुरी में ऑनर्स की पढ़ाई होती है. लेकिन, पीजी की पढ़ाई नहीं होती है.

मगध विवि में मगही का िवभाग तो है, पर पढ़ाई नहीं

मगध विवि में 2011-12 में का विभाग हिंदी विभाग के अधीन ही खोला गया था. लेकिन, इसकी मान्यता अब तक नहीं मिली है. इसका रेगुलेशन नहीं बन पाया है. इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया.

पटना यूनिवर्सिटी

पटना विवि में अरबी, मैथिली, पर्सियन व बांग्ला की पढ़ाई पीजी लेवल की होती है. यहां सभी का अलग-अलग डिपार्टमेंट और टीचर भी है. यूजी के साथ पीजी लेवल की भी यहां पढ़ाई चल रही है.

जेपी िवश्वविद्यालय

जेपी विवि, छपरा में भोजपुरी की पढ़ाई होती है. यहां भी दो दशकों से भोजपुरी की पढ़ाई हो रही है, लेकिन, वीर कुंवर िसंह विवि की तरह यहां भी रेगुलेशन को लेकर समस्या खड़ी है.

िवशेष आमंत्रित आलेख

भाषा है तो हम भी हैं

डॉ प्रमोद कुमार तिवारी

अपनी मातृभाषा में लिखने के कारण निर्वासित केन्याई लेखक न्गुगी वा थ्योंगो लिखते हैं ‘‘हमें अपनी मातृभाषाओं का प्रयोग करने पर बेतों से पीटा जाता था या एक तख्ती पकड़ा दी जाती थी, जिसे लेकर हम अपने साथ घूमते थे और उस तख्ती पर लिखा होता था-‘मैं मूर्ख हूं.’

कई बार रद्दी की टोकरी के कागज के टुकड़े निकाल कर हमारे मुंह में ठूस दिये जाते थे और फिर इन टुकड़ों को एक लड़के के मुंह से निकाल कर दूसरे लड़के के मुंह में डाला जाता था और यह सिलसिला उस अंतिम लड़के तक चलता था, जो अपनी मातृभाषा में बोलने का दोषी पाया गया हो.’’(अनुवाद-आनंदस्‍वरूप वर्मा)

मातृभाषाओं के प्रयोग पर सत्ताओं का अत्याचार कोई नयी बात नहीं है. सत्ता में बैठे लोग भले बताएं कि भाषा माध्यम मात्र हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि भाषाएं केवल बातचीत और संचार का माध्यम नहीं होतीं. ये सोचने, समझने, महसूसने, अपने पास के और दूर के परिवेश से जुड़ने और कुछ नया रचने का मूल साधन होती हैं. भाषाएं केवल माध्यम नहीं लक्ष्य होती हैं, इसीलिए जब किसी को उसकी भाषा से काटा जाता है, तो वह अपनी जड़ों से, अपनी मौलिकता से भी कट जाता है.

फिर वह एक स्तर पर पंगु होता जाता है. दूसरी ओर अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने-सोचने भाषाओं को जानने) के कारण आप में नया रचने और सवाल करने की ऐसी क्षमता आ जाती है जो पहले से सत्ता में बैठे लोगों को रास नहीं आती. वे सवाल पूछनेवाले जागरूक लोगों से घबराते हैं इसीलिए बड़े लोगों को तेज तर्रार और मौलिक सवाल पूछनेवाले लोगों की जरूरत नहीं होती उन्हें अपना काम कराने के लिए बस पढ़े-लिखे मजदूरों की जरूरत होती है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उन्‍हें नेतृत्व करनेवाले लोगों की नहीं ‘येस सर’ बोलनेवाले अनुचरों की जरूरत होती है.

भोजपुरी क्षेत्र सदियों से ऐसे आदर्श अनुचरों और श्रमिकों का क्षेत्र रहा है. इतने सस्ते, घनघोर मेहनती, सहनशील, भावुक और संबंधों के लिए सब कुछ सह जानेवाले (ज्यादा संस्कार के कारण और थोड़ा मजबूरी के कारण) ऐसे मजदूर पूरी दुनिया में खोजने से भी नहीं मिलते इसीलिए विदेशों से लेकर देश के कोने कोने तक इनकी मांग बनी रहती है. मजदूरी का समय बढ़ाकर और एक्सट्रा ड्यूटी कर ये मजदूर अपने बच्चों का भविष्य संवारना चाहते हैं, उन्हें घटिया अंगरेजी माध्यम के स्कूलों में डालते हैं और दोतरफा शोषण (समझ की संस्‍कृति से दूर होना एवं अंगरेजी की दुकान चलानेवाले ठगों की जाल में फंसना) के शिकार होते हैं. दुनिया भर के शिक्षा शास्त्री, समाजशास्त्री, संयुक्त राष्ट्र की संस्थाएं मातृभाषा में शिक्षा देने की बात करती रही हैं. गांधीजी, रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर से लेकर विदेश के जीन पियाजे तक यह कह कह कर थक गए कि ‘मातृभाषाओं में शिक्षा देने से छात्र बहुत जल्दी सीखते हैं और उनका मानसिक विकास बेहतर होता है.(जीन पियाजे)’ एनसीइआरटी, िदल्ली अपने आधार पत्र में लिखती है कि ‘बच्चे की घर की भाषा और स्कूल की भाषा को जोड़ना स्कूल की पहली भूमिका होनी चाहिए.’ परंतु भारतीय सत्ता ने शायद ही इसे कभी गंभीरता से लिया हो.

यूं तो यह पूरे देश की समस्या है परंतु जैसा हीनताबोध और खुद की भाषा के प्रति जैसा अपराध भाव भोजपुरी के लिए है उसका कोई और उदाहरण खोजना मुश्किल है. ऐसा लगता है कि भोजपुरीभाषियों के मुंह खोलते ही बाली की तरह उनकी आधी शक्ति कोई छीन लेता है.

बोलनेवाला चाहे िहंदी बोल रहा हो या अंगरेजी पर भोजपुरी की छौंक उसके आत्मिवश्वास पर भारी हमला कर रही होती है. कभी वह ‘श-स’ के चक्कर में फंसा होता है तो कभी ‘वैल्‍यू-भैल्‍यू’ के. इस सब की शुरुआत तब होती है जब कच्चे बालमन में यह बात बैठाई जाती है कि भोजपुरी का मतलब पिछड़ा होता है, भोजपुरी का मतलब गरीबी और बेरोजगारी होता है. इतने वर्षों बाद भी हम अपने बच्चों को यह समझाने में असफल रहे हैं कि कोई भाषा गरीब या पिछड़ी नहीं होती और तमिलनाडु से लेकर पंजाब तक के लोगों की भाषाओं में उनकी मातृभाषा का प्रभाव दिखता है. राष्‍ट्रपति जी तक की अंग्रेजी में बांग्‍ला की अनुगूंज समायी होती है. जो भाषा जितनी सशक्त होती है, दूसरी भाषाओं के उच्चारण में उसका प्रभाव उतना ही ज्यादा दिखता है. यह भोजपुरी की ताकत है जिसके कारण विदेशों में यह दूसरी भाषाओं में समाने से बच गयी.

शिक्षा की भाषा को लेकर कोठारी कमीशन (1964-66 ई.) ने त्रिभाषा सूत्र दिया था जिसके अनुसार सामूहिक अस्मिता के हितों को मातृभाषाओं और क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से, राष्ट्रीय स्वाभिमान और एकता को हिंदी से एवं प्रशासकीय सुविधा व तकनीकी उन्नति को अंगरेजी के माध्यम बचाया जाए. (एनसीईआरटी का आधार पत्र, पृ.13) इसी पुस्तक में मातृभाषा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘वे भाषाएं जो घर में बोली जाती हैं और जो पड़ोस में, साथियों के साथ और सगे संबंधियों के बीच बोली जाती है. ध्यान दें कि जब अस्मिताबोध कमजोर पड़ता है तो हीनताबोध प्रभावी होता है. यानी मातृभाषा में शिक्षा से अस्मिता और आत्मिवश्वास मजबूत होता है. और बच्चों के लिए तीन भाषाएं सीखना न तो पहाड़ तोड़ना है और न ही इनमें परस्पर बैरभाव है.

भोजपुरिया समाज में गहराई तक बैठे इस भाषिक हीनताबोध को समाप्त करने का सबसे आसान तरीका जो दिखता है वह है शिक्षा में इसे स्थान देकर नयी पीढ़ी को इसका महत्व बताना. प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा से अलग-अलग ढंग से इस हीनताबोध को गौरवबोध में बदला जा सकता है. दरअसल बड़ी समस्या यह है कि हमने भाषा और शिक्षा को बहुत छोटी चीज मान लिया है. भाषा सिर्फ संपर्क का माध्यम हो गयी है और शिक्षा, सिर्फ डिग्री और नौकरी (कैसी भी, बस कुछ पैसे मिल जाएं) पाने का साधन.

जबकि इन दोनों का आपकी अस्मिता (पहचान), रचनात्मकता, आपके नवाचार (इनोवेशन) और आपके भविष्य से गहरा िरश्ता होता है. एक उदाहरण लें, प्राथमिक कक्षाओं की किताबों में बहुत मुश्किल से कहीं ‘गोबर’ शब्द मिलेगा. इसकी जगह ज्यादातर मिट्टी जैसे शब्दों से काम चलाया जाता है या अंगरेजी में थोड़ी हिकारत के साथ ‘काऊ डंग’(जो आगे चलकर ‘काऊ बेल्‍ट’ वाली मानसिकता में रूपां‍तरित हो जाता है.) आता है. एक भोजपुरिया गांव का बच्चा जो गोबर, गोबरछत्ता, गोबरउरा, गोबरगणेश, गोंइठा से लेकर गोबरपथनी तक से रोज किसी न किसी रूप में जुड़ता है उसे किताब उसके पूरे परिवेश से काटकर यह सीख देती है कि गोबर मतलब पिछड़ा होता है. वह बच्चा किताब का चित्र देख पेंग्विन को जान लेता है परंतु दिन रात जिस भैंस के बीच रहता है उसके नाम (भंइस) तक का उच्चारण करना भी हंसी उड़वाना हो जाता है.

क्योंिक पाठ्यपुस्तकों में इन जैसे सैकड़ों शब्दों और गतिविधियों के लिए कोई जगह नहीं होती, क्योंिक किताबों का उस भोजपुरी संस्कृति से दूर दूर तक कोई िरश्ता नहीं होता जिसमें बच्चा जीवन जी रहा होता है. इसीलिए जो वास्तविक है उसके प्रति हीनताबोध और जो दूर का है, उसके जीवन से सीधे जुड़ता ही नहीं उस संस्कृति के लिए मन में गौरवबोध जन्म लेता है.

प्राथमिक कक्षाओं में केवल भाषा नहीं पूरी संस्कृति के बारे में धारणा निर्मित हो रही होती है वह धारणा गौरव की भी हो सकती है और हीनता की भी. कच्ची उम्र के बच्चे जिस चीज से जुड़ते हैं वह ताउम्र साथ रहती है. इसीलिए राहुल सांकृत्यान आजादी से पहले कह रहे थे कि ‘यदि विदेशी साम्राज्यवादियों की भांति हम भी चंद सेठों-बाबुओं को शिक्षित बनाकर उन्हें शासक होते देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि नब्बे फीसदी जनता अशिक्षित रहे, अपने शासकों की मनमानी में दखल न दे तो मातृभाषा को छोड़ दूसरी भाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने की शर्त ठीक है.’ उस समय राहुलजी को राष्ट्र-विरोधी कहा गया था परंतु आज उनकी बातें हर ओर से प्रमाणित हो रही हैं. (ध्यान रहे कि अमेरिका में एक लाख रूपया महीना पर मजदूरी कर लेने से मजदूर मालिक नहीं हो जाता. हमारे ज्यादातर सॉफ्टवेयर इंजीनियर वहां खुद से आधी उम्र के बॉस के नीचे काम करते हैं.)

मिडिल एवं माध्यमिक शिक्षा में एक विषय के रूप में भोजपुरी के रहने से बच्चे लगातार अपनी संस्कृति से जुड़े रहेंगे और जिनकी रुचि इसी क्षेत्र में आगे काम करने की एवं उच्च शिक्षा लेने की होगी उन्हें एक िवकल्प मिलेगा. इसके साथ ही वे भोजपुरी साहित्य एवं संस्कृति की स्तरीय सामग्री से जुड़ सकेंगे और समाज के बड़े िहस्से तक पहुंचा सकेंगे.

उच्च शिक्षा अपनी गहरी छानबीन, शोध और बहस के माध्यम से किसी भी समाज की सोच को वैधता (वैलिडिटी) देने का काम करती है. वह आक्षेपों और आरोपों को अपने शोध और तर्क से खारिज कर जो समाज के हित में है उसे स्थापित करने का काम करती है. यह सत्ता समूहों और प्रभावी लोगों की मान्यता के खिलाफ जो सही है और जो आखिरी आदमी (संदर्भ-गांधीजी) के पक्ष में है उसकी वकालत करती है भले उसकी संख्या एक ही हो. भोजपुरी, दुनिया की शायद अकेली भाषा है जो इतने बड़े क्षेत्र और कई करोड़ लोगों की भाषा होने के बावजूद इस तरह के हीनताबोध से जुड़ती है. इसका कारण यह है कि इस भाषा की ताकत और इसकी खूबसूरती को शोध और तर्क के साथ बड़ी मात्रा में उभारा ही नहीं गया है और जितना उभारा गया है (उदय नारायण तिवारी, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह से लेकर निर्भिक जी और पांडेय कपिल तक) उसे भी सही जगह तक सही तरीके से पहुंचाया नहीं गया है.

देश दुनिया के समझदार लोगों तक भोजपुरी की समृद्ध संस्‍कृति, गौरवशाली विरासत, भाषा का सक्षम रूप और अकूत लोक संपदा नहीं पहुंचती है उनके पास पहुंचते है अश्लील गीत और भौंडे नाच. उनके पास पहुंचती हैं अपराध और भ्रष्टाचार की घटनाएं जिनका संबंध व्यक्ति और व्यवस्था से होता है किंतु उसे भाषा और क्षेत्र विशेष से जोड़ दिया जाता है. लोगों के पास भोजपुरी साहित्य में मौजूद प्रकृति की अद्भुत निरीक्षण क्षमता, सत्ता का चरम प्रतिरोध, उच्च पारिवारिक और मानवीय मूल्यों की गाथा नहीं समाज की गरीबी और जहालत पहुंचती है.

उस समय यह समाज िहंदी भाषी नहीं सिर्फ भोजपुरी भाषी हो जाता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंिक तर्क और तथ्य के साथ इन बातों को लोगों तक पहुंचाने के लिए जिस उच्च शिक्षा और शोध की आवश्यकता होती है उसे हमने विकसित ही नहीं होने दिया. बार-बार हमें बताया जाता रहा कि इसके लिए आठवीं अनुसूची में आना जरूरी है. हमने पलट कर कभी नहीं पूछा कि बिना आठवीं अनुसूची में आए जब राजस्थानी, मैथिली साहित्य अकादेमी की भाषा हो सकती हैं तो भोजपुरी क्यों नहीं? हमने कभी नहीं पूछा कि तमाम भाषाएं बिना आठवीं अनुसूची में आए जब कई राज्यों की आधिकारिक भाषाएं हो सकती हैं तो बिहार यूपी में भोजपुरी क्यों नहीं? हमने कभी ये पलट कर नहीं पूछा कि पिछले 50 साल से राजस्थान के िवश्वविद्यालयों में राजस्थानी की पढ़ाई हो सकती है और यूजीसी के नियमों के अनुरूप लेक्चरर, प्रोफेसर हो सकते हैं तो भोजपुरी ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया? (सूचना के लिए बता दूं कि जोधपुर िवश्वविद्यालय में 1970 से बीए में राजस्थानी की पढ़ाई हो रही है और वहां यूजीसी नियमानुसार तीन स्थायी प्राध्यापक हैं. उदयपुर के मोहनलाल सुख‍ाडि़या िवश्वविद्यालय में 1982 से बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई हो रही है और पीएच.डी. भी कराई जा रही है. इस समय एक स्थायी और पांच अस्थायी प्राध्यापक हैं. इसके अलावे वहां के कई गवर्नमेंट कॉलेजों में राज्यस्थानी पढ़ाई जाती है साथ ही 11वीं 12वीं कक्षा में इसकी पढ़ाई होती है.

(सुखाडि़या वि.वि. के प्राध्यापक डॉ. सुरेश साल्‍वी जी से मिली सूचना के आधार पर). हमने कभी अपने नियंताओं से यह पूछने की िहम्मत नहीं दिखाई कि जब संविधान से कोई मान्यता नहीं पानेवाली स्पेनिश, फ्रेंच, चीनी, जापानी की शिक्षा सरकारी और निजी विद्यालय धड़ल्ले से दे सकते हैं तो भोजपुरी को किस अपराध के कारण बाहर रखा जा रहा है और वैज्ञानिक और आधुनिक ढंग से इसके अध्ययन की योजना सरकार क्यों नहीं बनाती? हमने अपने मीडिया के साथियों से कभी नहीं पूछा कि बहुसंख्‍यक जनता फूहर गीतों और अश्लील नाचों के बारे में तो जानती है दरिया साहब, चंद्रशेखर मिसिर और मोती बीए को नहीं जानती इसमें आपलोगों की भी कुछ भूमिका और िजम्मेदारी है या नहीं? अगर केवल लोकप्रियता ही प्रमाण होती और अगर िहंदी की मीडिया भी बार बार सािहत्य को स्थान नहीं देती तो लोग प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध को नहीं सिर्फ िफल्मी गीतों और मंचीय कवियों को जानते. हिंदी क्षेत्र की मीडिया ने भोजपुरी साहित्य और रचनाकारों को भोजपुरी के खाने में डाल दिया और भोजपुरी क्षेत्र की मीडिया ने भी अपने इलाके की भाषा-संस्कृति को दिखाने की बजाय खुद को हिंदी तक सीमित कर लिया तो आखिर इस भाषा के रचनाकार किस मीडिया के पास जाएं? जिस हुलस के छठ गीत और नवरात्रि में देवी गीत को बनारस पटना की मीडिया दिखाती है क्या उसी हुलस के साथ भोजपुरी भाषा में शिक्षा और सािहत्य की स्थिति को दिखाया गया है? हमने कभी पूछा कि िहंदी से लेकर दक्षिण तक की फिल्मों में नौकर और गुंडा के रूप में भोजपुरी भाषियों के चित्रण का भोजपुरी के प्रभावी लोग (सरकार से मीडिया तक) विरोध क्यों नहीं करते.

असल में बड़ी समस्या यह है कि हमने सत्ता के चरित्र को समझा ही नहीं. हम अपनी लड़ाई समझ और तर्क की बजाय भावुकता और दिल से लड़ते रहे. समाज ने अपनी िजम्मेदारी कुछ कमजोर और स्वंयभू नेताओं पर डाल दी जो स्वयं भोजपुरी भाषा और साहित्य की ताकत नहीं के बराबर जानते थे, बड़े मंचों पर मजबूती के साथ अपनी बात भला कैसे रख पाते. उनके लिए गीत-नृत्य पुरस्कार का कार्यक्रम आयोजित कर लेना और कुछ राष्ट्रीय नेताओं को बुला लेना ही सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी. बड़े नेता भी एक दो वाक्य भोजपुरी बोलकर इनका मनचाहा उपयोग करते रहे और हमारा समाज उसी में खुश होता रहा. असल में यह सत्ता का चरित्र है. इस तंत्र को समझने का आसान नमूना डोगरी और सिंधी जैसी भाषाओं का सत्ता की ताकत पाकर अपने से कई गुणा बड़ी भाषाओं से पहले सािहत्य अकादेमी और आठवीं अनुसूची में स्थान पा लेना है. यह मामला रोचक ही नहीं विडंबनापूर्ण भी है.

फ्रांस में जन्‍मे, दून स्कूल में पढ़े, कश्मीर के आखिरी महाराजा हरि सिंह के पुत्र डॉ. कर्ण सिंह 1968 ई. में ‘डोगरी’ को अकादेमी की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखे. इस प्रस्ताव को सुनीति कुमार चटर्जी की अध्यक्षता वाली नयी समिति के समक्ष रख गया. समिति ने 1969 की बैठक में निर्णय लिया कि डोगरी के पास ‘300 साल से लगातार साहित्य की परंपरा और इतिहास नहीं है’, और यह आधुनिक साहित्यिक अभिव्यक्ति (माडर्न लिटररी कम्‍युनिकेशन) की भाषा भी नहीं है. साथ ही इसका प्रयोग किसी स्कूल या महाविद्यालय में निर्देश की भाषा के रूप में या फिर स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं होता है. साहित्य अकादेमी की भाषा बनने के लिए निर्धारित पांच मानदंडों में से ‘डोगरी’ दो शर्तों को बिल्कुल पूरा नहीं करती थी और अ दो को भी आधा अधूरा ही पूरा करती थी. इसलिए यह साहित्य अकादेमी की भाषा नहीं बन सकती थी, परंतु उसी साल ‘डोगरी’ साहित्य अकादेमी की भाषा बन गई. साहित्य अकादेमी के दस्तावेज बताते हैं कि कुछ लोग की सहानुभूति के कारण नियम में ढील दी गई.

दूसरी ओर भोजपुरी भाषा को जबरन कुछ कृत्रिम समस्याओं से जोड़ा गया. मसलन यह कहा गया कि इसमें शिक्षा देने या इसे आठवीं अनुसूची में डालने से िहंदी खत्म हो जाएगी.

कि मान्यता मिलने पर भी भोजपुरी भाषी, िहंदीभाषियों नहीं रहेंगे(किसी और ग्रह के प्राणी हो जाएंगे). हकीकत यह है कि सभी भोजपुरी भाषी अच्छी शिक्षा पाने और गांव से निकलने के बाद हिंदी भाषी बन जाते हैं और वे अपना काम काज िहंदी में ही करते हैं क्योंिक हिंदी रोजगार, व्यापार और संपर्क की बड़ी भाषा है भोजपुरी सीखने का मतलब हिंदी छोड़ना नहीं होता उल्टे हिंदी को मजबूत करना होता है. जड़ सींचने से पौधा नहीं मुरझाता. भाषाएं तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करती हैं. सिर्फ भोजपुरी के लिए यह कहा गया कि समय की मांग है कि छोटी भाषाएं बड़ी भाषाओं के लिए रास्ता दें जबकि इस जबरन कुर्बानी की जरूरत ही नहीं है. िहंदी भोजपुरी साथ-साथ रहती आयी हैं और स्वाभाविक ढंग से कभी वह इसमें समाहित हो जाएगी या खत्म हो जाएगी तो तब कि तब देखी जाएगी. एक दिन कोई मरनेवाला है इसलिए आज ही उसका गला नहीं दबा दिया जाएगा क्या? इस हिसाब से एक दिन अंगरेजी ही पूरी दुनिया की भाषा होगी तो क्या िहंदी की पढ़ाई और इसमें काम काज बंद कर केवल अंगरेजी में शिक्षा देना शुरू कर दिया जाय. भोजपुरी दूसरी भाषाओं के साथ चलने को तैयार है परंतु अपना अस्तित्व समाप्त कर नहीं.

िनष्कर्ष यह निकलता है कि भोजपुरी क्षेत्र की प्राथमिक कक्षाओं में मूल माध्यम के रूप में भोजपुरी को लागू करना चाहिए शिक्षा के अधिकार के तहत संविधान ने पूरे भारत के बच्चों को मातृभाषा में पढ़ने का अधिकार दिया है. उसके साथ हिंदी-अंगरेजी पढ़ाएं पर भोजपुरी का िवकल्प अवश्य दें.

शिक्षा का माध्यम ना होने के कारण करोड़ों नौनिहाल अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और हीनता बोध के शिकार हो जाते हैं. जब भाषाएं छूटती है तो जीभ कट जाती है, हमारा आत्मिवश्वास कम हो जाता है और हम बोलने से पहले हकलाने लगते हैं. माध्यमिक कक्षाओं एवं उच्च कक्षाओं में एक विषय के रूप में भोजपुरी में पढ़ने का अधिकार हर कीमत पर मिलना चाहिए. क्योंिक इस भाषा में खान-पान, गीत-संगीत, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, प्रकृति-निरीक्षण, सौहार्द एवं पारिवारिक मूल्यों की अकूत संपदा सुरक्षित है.

िवश्वविद्यालयों में इसलिए स्थान मिलना चाहिए कि इसमें अच्छा शोध हो और इसमें संचित ज्ञान का िवश्लेषण हो ताकि तर्क के साथ छात्र इसके महत्व को पूरे समाज को बता सकें. ताकि लोग भोजपुरी भाषा-साहित्य-संस्कृति को हिकारत से नहीं सम्मान से देखना शुरू करें. जो भोजपुरी भाषा में उचच शिक्षा या पीएच.डी. आदि करना चाहें, आईएएस की परीक्षा देना चाहें, संविधान की मर्यादा बचाए रखने के लिए संसद में शपथ लेना चाहें, उन्हें इसका हक मिले इसलिए उच्च शिक्षा में एक प्रमुख विषय के रूप में इसके अध्ययन की सुविधा मिलनी चाहिए और तत्काल भोजपुरी क्षेत्र के सभी िवश्वविद्यालयों में भोजपुरी शिक्षा का स्‍थायी प्रबंध सरकार द्वारा किया जाना चाहिए. यह प्रत्येक भोजपुरीभाषी का मौलिक अधिकार है.

(लेखक गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

राज्यपाल से मिल करेंगे अनुरोध

भोजपुरी की पढ़ाई जारी रहे, इसके लिए राज्यपाल रामनाथ कोविंद से िमल कर मान्यता के लिए अनुरोध करूंगा. सरकार भोजपुरी भाषा की पढ़ाई के लिए सजग है. विवि भी प्रक्रिया पूरी करेगा. भोजपुरी बिहार से जुड़ी और काफी समृद्ध भाषा है. सरकार चाहेगी, इसकी पढ़ाई जारी रहे.

डॉ अशोक चौधरी, िशक्षा मंत्री

विवि को करनी चाहिए पहल

जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य वशिष्ठ नारायण सिंह ने कहा कि भोजपुरी बहुत ही समृद्ध भाषा है. इसे बोलनेवाले लोग कई देशों में हैं. इसकी पढाढ़ाई जारी रहनी चाहिए. विवि को इसकी पहल करनी चाहिए. हमें विश्वास हैं कि राज्यपाल भी इसकी मान्यता देंगे.

वशिष्ठ नारायण िसंह, जदयू के प्रदेश अध्यक्ष व सांसद

भोजपुरी कोर्स को रखा जाये जारी

वीर कुंवर सिंह विवि भोजपुरी के गढ़ में है. ऐसे में राजभवन व सरकार को प्रयास करना चाहिए कि वहां भोजपुरी की पढ़ाई जारी रहे और सभी लोग मिल बैठ कर कोर्स की मान्यता राजभवन से दिलाने का प्रयास करें. भोजपुरी भाषा संस्कृति से जुड़ी हुई है. इससे वहां के लोगों का लगाव है.

चंद्रभूषण राय, अध्यक्ष, भोजपुरी अकादमी

नये उद्योगों को टैक्सों से छूट, स्टांप ड्यूटी व जमीन रजिस्ट्री के पैसे भी िमलेंगे

राज्य में नयी औद्योिगक नीति को िमली मंजूरी

पटना : राज्य में अब नये उद्योगों को पांच साल तक किसी तरह का टैक्स नहीं देना पड़ेगा. मंगलवार को राज्य कैबिनेट की बैठक में नयी औद्योगिक नीति को मंजूरी दी गयी. यह पांच साल के लिए प्रभावी हाेगी. कैबिनेट की बैठक के बाद उद्योग विभाग के प्रधान सचिव एस सिद्धार्थ ने बताया कि नयी औद्योगिक नीति को एक सितंबर, 2016 से पांच साल के लिए स्वीकृत किया गया है. इसमें प्रदेश में लगनेवाले उद्योगों से सभी प्रकार के टैक्स पांच साल तक नहीं लेने का प्रावधान है. वहीं, स्टांप ड्यूटी और जमीन की रजिस्ट्री पर लगनेवाला खर्च सरकार उद्याेगपति को वापस कर देगी.

एस सिद्धार्थ ने बताया कि उद्योग के सभी क्षेत्रों को जोड़ कर एक नीति बनायी गयी है. इसे प्रायोरिटी सेक्टर और नॉन प्रायोरिटी सेक्टर बांटा गया है. प्रायोरिटी सेक्टर में खाद्य, पर्यटन, सूक्ष्म उद्योग, आइटी, इलेक्ट्रॉनिक्स, हैंडलूम, टेक्सटाइल, प्लास्टिक, नवीकरणीय ऊर्जा, स्वास्थ्य, चर्म उद्योग और तकनीकी शिक्षा को रखा गया है. उन्होंने बताया कि सरकार इंसेंटिव के तौर पर स्टांप ड्यूटी व लैंड, कनवर्जन शुल्क व 100% वैट की राशि लौटा देगी.

पूर्व की नीति में सरकार जहां कैपिटल सब्सिडी के तौर पर पांच करोड़ तक कुल पूंजी निवेश के 20% का भुगतान देती थी, वहीं नयी नीति में ब्याज सब्सिडी देने का प्रावधान किया गया है, जो बैंक के ब्याज का 100%, जो कुल निवेेश का 30% व 10 करोड़ में से जो कम हो, के आधार पर लागू होगा. सूक्ष्म व लघु उद्योग के लिए 12% और महिलाओं, एससी, एसटी, वार विडो, विकलांग और थर्ड जेंडर को 15% अतिरिक्त ब्याज सब्सिडी मिलेगी.

बाढ़पीिड़तों के िलए 754 करोड़ रुपये हुए मंजूर : पेज 13

इंडस्ट्रीयल पार्क के लिए न्यूनतम 25 एकड़ जमीन

इंडस्ट्रीयल पार्क के लिए न्यूनतम 25 एकड़ और आइटी पार्क के लिए न्यूनतम तीन एकड़ जमीन तय की गयी है. इसके लिए भी बैंक कर्ज पर सरकार 10% ब्याज सब्सिडी देगी, जो कुल िनवेश के 30% या 50 करोड़ से अधिक नहीं होगी. फूड पार्क के मामले में ब्याज सब्सिडी 35% होगी. उद्योग के लिए टेंडर पर बिहार के निवेशक को 15% की छूट िमलेगी. यह छूट 25 करोड़ तक के निवेश पर मिलेगी. उद्योगाें को 15% तक बिहार में उत्पादित वस्तुओं की खरीद करना अनिवार्य होगा. इसकी सूची बिहार सरकार बनायेगी.

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