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सेरेंगसिया के शहीद : झारखंड के गौरव

जेबी तुबिद पिछले दिनों सेरेंगसिया गया था. शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करने. वहां आयोजित शहीद दिवस समारोह में भागीदारी देने. जानने-समझने कि सुदूर देहात में रहनेवाले लोग अपनी विरासत के प्रति कितने संजीदा हैं. यकीन मानिए, सेरेंगसिया घाटी के लोगों की जागरूकता देखकर मुझे अभूतपूर्व गौरव की अनुभूति हुई. वीरों की धरती कोल्हान की […]

जेबी तुबिद

पिछले दिनों सेरेंगसिया गया था. शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करने. वहां आयोजित शहीद दिवस समारोह में भागीदारी देने. जानने-समझने कि सुदूर देहात में रहनेवाले लोग अपनी विरासत के प्रति कितने संजीदा हैं. यकीन मानिए, सेरेंगसिया घाटी के लोगों की जागरूकता देखकर मुझे अभूतपूर्व गौरव की अनुभूति हुई. वीरों की धरती कोल्हान की सेरेंगसिया घाटी कल तक मेरे लिए सिर्फ एक नाम थी. अब यह विशेषण बन चुकी है. यह वह भूमि है यहां जाकर मैंने इतिहास को घूमते-टहलते महसूस किया. यह भी जाना कि इतिहास की किताबों में सिर्फ वही नहीं लिखा होता, जो वास्तव में इतिहास है. इतिहास के लेखक दरअसल, अपनी समझ और मान्यताओं के मुताबिक भी कुछ अध्याय जोड़ या घटा देते हैं. यह जानते-समझते हुए भी कि आनेवाली पीढ़ियां सिर्फ उनके लिखे पर ही विश्वास करनेवाली हैं. सेरेंगसिया के शहीदों को भी शायद इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिली, जिस पर उनका वाजिब हक बनता था.

जरूरत है कि सेरेंगसिया के शहीदों को उचित सम्मान के साथ इतिहास के अध्यायों में शामिल कराने की. सेरेंगसिया में हर साल आयोजित होनेवाले शहीद दिवस समारोह को राजकीय कार्यक्रम घोषित करना इस क्रम में बेहतरीन पहल हो सकती है. इसके साथ ही वहां एक संग्रहालय का निर्माण कराना चाहिए. वहां आदिवासी लड़ाकों से जुड़ी वस्तुएं और उनसे संबंधित साहित्य को रखा जाना चाहिए. ताकि, हमारी मौजूदा और आनेवाली पीढ़ियां इस बात पर गर्व कर सकें कि देश की आजादी की लड़ाई में उनके पूर्वजों ने किस कदर अपनी जान की आहुति दी है. एलिट सोसाइटी इन लड़ाकों पर भी चर्चा करे. उन्हें सम्मान दे. मुझे पूरी उम्मीद है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास मेरे इस सुझाव पर अमल करेंगे और सेरंगसिया के शहीद दिवस समारोह राजकीय कार्यक्रम घोषित कर दिया जाएगा.

खैर, अब चर्चा सेरेंगसिया की. बात सन 1820-21 की है. अंग्रेजों के खिलाफ कोल्हान में चले विद्रोहों पर काबू पाने में ब्रिटिश अफसरों को सफलता मिल चुकी थी. कोल्हान क्षेत्र में हुए दर्जनों विद्रोहों पर काबू पाने के बाद कोल विद्रोह को शांत करना उनके लिए बड़ी उपलब्धि मानी गयी. लेकिन, अंग्रोजों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. इस्ट इंडिया कंपनी के जरिए सत्ता हासिल करनेवाली ब्रिटिश सरकार को ही आदिवासियों से समझौता करना पड़ा. तब के कमिश्नर थामस विल्किंसन से औपचारिक समझौते के बाद विल्किंसन रूल बना. इसके तहत स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की स्वायत्तता को संवैधानिक मान्यता मिल गयी. लेकिन, उनका दमन चक्र चलता रहा. जब इस दमन का दायरा बढ़कर बच्चों और महिलाओं तक आया तो स्वभावगत लड़ाके हो आदिवासी इसे कबूल नहीं कर पाए. 1831-32 में कोल विद्रोह हुआ. अंग्रेजों का काफी नुकसान हुआ. लेकिन, कोल विद्रोह भी दबा दिया गया. 18 जनवरी 1833 को सरायकेला में हिल असेंबली बुलायी गयी. इसमें कुछ मुंडा मानकी सरदारों ने कंपनी शासन की अधीनता स्वीकार कर ली. फरवरी 1837 तक पुलिसिया कार्रवाई कर बाकी बचे गांवों में भी कंपनी की सत्ता कायम करा दी गयी. दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी की स्थापना हुई और थामस विल्किंसन को एजेंसी का एजेंट बना दिया गया. बस इसी बात ने विद्रोह की ज्वाला धधका दी.

सेरेंगसिया घाटी की वास्तविक कहानी यहीं से शुरू होती है. राजबासा पीड़ (इलाका) के पोटो सरदार के नेतृत्व में 22 पीड़ों के लोगों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया. कंपनी की सेना कई मौकों पर मुंह छिपाकर भागी. इससे हो लड़ाकों का हौसला बढ़ा. वालंडिया में गुप्त सभा हुई. इसमें सेरेंगसिया और बागलिया घाटियों को अपने अधिकार में लेने का निर्णय लिया गया. ग्राम प्रधानों को तीर भेजकर विद्रोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया गया. बगावत हो चुकी थी. अंग्रेजों को इसका भान भी नहीं था कि हो आदिवासी इतनी मुस्तैदी से विरोध करेंगे. इससे विचलित विल्किंसन ने 12 नवंबर 1837 को चाईबासा में अपने अफसरों की मीटिंग की. विरोध को दबाने के लिए 17 नवंबर को कैप्टन आर्मस्ट्रांग के नेतृत्व में 400 सशस्त्र सैनिक 60 घुड़सवार सिपाहियों और दो तोपों के साथ बाढपीड़ रवाना गुए. इसकी खबर पोटो सरदार को लग गयी. 19 नवंबर को पोटो सरदार की विद्रोही सेना ने आर्मस्ट्रांग की टुकड़ी पर हमला बोल दिया. भीषण लड़ाई हुई और कंपनी की सेना को हार का मुंह देखना पड़ा. इसके बाद अंग्रेजों ने पोटो सरदार के गांव पर हमला कर दिया. उनके पिता को कैद कर लिया गया. तड़ागहातु, रुईया, जयपुर आदि गावों पर भी हमला किया गया. महिलाओं तक को बंदी बना लिया गया. तड़ागहातु गांव में आग लगा दी गयी. बर्बर दमन किया गया. 8 दिसंबर को पोटो सरदार गिरफ्तार कर लिए गए. उनके सहयोगियों की भी गिरफ्तारी हुई. 1 जनवरी 1838 को जगन्नाथपुर में हजारों लोगों के बीच सेरेंगसिया घाटी के लड़ाके पोटो सरदार, नारो हो और बड़ाय हो को फांसी दे दी गयी. एक दिन बाद 2 जनवरी को बोड़ो हो और पंडुआ हो को सेरेंगसिया गांव में सार्वजनिक तौर पर फांसी पर लटका दिया गया.

इतनी भीषण लड़ाई के बावजूद इतिहास के पन्नों में इन हो लड़ाकों को सम्मान देने में थोड़ी कंजूसी की गयी. किसी एक इलाके के पांच-पांच लोगों को एक साथ फांसी पर चढ़ा देना कोई सामान्य घटना नहीं थी. आज भी सेरेंगसिया के लोग इस शहादत की तारीखों पर मेला लगाते हैं. एक-एक महीने तक कार्यक्रम चलता है. लोग अपने स्तर से चंदा कर यह कार्यक्रम करते हैं. इनके जज्बे को सलाम. सेरेंगसिया के शहीदों को सलाम.

लेखक झारखंड सरकार के पूर्व गृह सचिव हैं.

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