महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जीवन मूल्यों तथा आस्था के विराट् भारतीय स्वर हैं. इनके व्यक्तित्व का निर्माण महान भारत की समृद्ध विरासत के सकारात्मक तवों को सहेजते हुए हुआ है. आचार्यश्री ऋषि-कवि-परंपरा के एक ऐसे शिखर व्यक्तित्व हैं, जिनकी प्रज्ञा में व्यापक संसार का सुरीला आरोह-अवरोह निरंतर होता रहता है.
इनकी रचनात्मक संवेदना में हर चेतनशील अस्तित्व का आभास मात्र ही नहीं, बल्कि उसका होना हम साफ-साफ देख सकते हैं. साँसों की आवाजाही की तरह चेतन की सक्रियता की जीवंत ध्वनि हम सुन सकते हैं. जहां कहीं भी जीवन है, और है निरंतर उसका स्पंदन, जब भी जाती है दृष्टि महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की उस ओर तो सहज-स्वाभाविक रूप से इनके मर्म में हलचल पैदा होती है. अपने सुप्रसिद्ध गीत ‘बांसुरी’ में उन्होंने अपने मर्म की आकुलता को सधे और सिद्ध लय का रूप देकर गहन संस्पर्श से भर दिया है. जिस आवेग, आवेश और आकुलता से निकली होगी पंक्तियाँ उसी तरह से संवेदनशील मन-प्राण में प्रवेश भी कर जाती हैं ‘‘मसक-मसक रहता मर्मस्थल मर्मर करते प्राण/कैसे इतनी कठिन रागिनी कोमल सुर में गाई/किसने बांसुरी बजाई।’’
आचार्यश्री जीवन भर जन्मजात प्रतिभा और आस्था के बूते सरलता के साथ कठिन को ही साधते रहे. सांसारिकों का नितांत भौतिकवादी और व्यावहारिक राग उन्हें भाया नहीं तभी तो संसार को अपने ढंग से जानते-समझते हुए अपने लिए एक अलग ही रास्ता बनाया. अपने सुर को साधते हुए उसी सत्य को राग-विस्तार देते रहे जिसके लिए बड़े-बड़े साधक जन्म-जन्मांतर के संचित पुण्य के सहारे उसे प्राप्त कर लेने का उपक्रम करते रहते हैं. शास्त्री जी को समझने के लिए न तो बहुत भटकना पड़ा और न ही माथा-पच्ची ही करनी पड़ी. विलक्षण प्रतिभा, दृष्टि और श्री-सम्पन्नता लेकर आचार्यश्री पैदा ही हुए थे. सांसारिक रूप से उनका जीवन अभावग्रस्त और दु:खमय रहा, मगर आन्तरिक और आध्यात्मिक रूप से वे विपुल वैभव से सम्पन्न रहे. चाहे-अनचाहे उनका अन्तस्तात्विक स्वरूप उनके सृजन में प्रकट होता रहा ‘‘अलग-थलग सभी सुरों से टेर मेरी अनसुनी-सी/मत्त प्राणों की उमंगें तप्त सिकता में चुनी-सी/गूंथना हूं चाहता निजर्न नयन के जल-कणों को/सत्य पर छाए हुए मधु-स्वपA के स्वर्णिम क्षणों को.’’
महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री सम्पूर्णत: साहित्य और कला के लिए ही समर्पित रहे. मानवीय मूल्यों में अटूट विश्वास करने वाले कवि श्रेष्ठ अनगढ़ को ही गढ़ते रहे और स्वयं भी सदा अनगढ़ और विलक्षण बने रहे. एक आस्थावादी कवि के रूप में जब कभी भी उन्हें देखा जाएगा तो उनका समग्र सृजन आस्था के ही संसार में ऊंचाईयों का दर्शन कराता मिलेगा.
मानवीय मूल्य तथा सांस्कृतिक चेतना की आध्यात्मिक ऊंचाई ही आस्था है. मनुष्य की पहचान उसकी संस्कृति, उसकी मूल्यवत्ता, उसकी हार्दिकता और आन्तरिक गुणवत्ता के कारण ही होती है. निश्चित रूप से इन तमाम विशिष्टताओं का सार आस्था में ही निहित है. व्यक्ति की प्रतिबद्धता अगर आत्मा के साथ है तो जो भी अभिव्यक्ति होगी. उसमें एक दृढ़ता और संकल्प की खुशबू अवश्य ही सन्निहित होगी. आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अपनी ‘रूप-चितेरे’ कविता में गाते हैं ‘‘सुरभि छिपी सुकुमार सुमन में,/जीवन की छवि उन्मन मन में,/सरल कामना भाव गहन में,/नाद-वर्ण में अनुभव मेरे !/रूप-चितेरे, रूप-चितेरे!!’’
– डॉ़ संजय पंकज
लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकारों की नजर में महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
श्री जानकीवल्लभ शास्त्री शास्त्रचार्य, हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, आलोचक और कहानी लेखक हैं. अपनी प्रतिभा, विद्वता, लेखन-कौशल और दिव्य व्यवहार से उन्होंने अनेक बार मुझपर अपनी गहरी छाप डाली है. हिन्दी के साहित्यिक उत्थान में बिहार की इस प्रतिभा को मानना पड़ता है. जानकीवल्लभ यहां के और समस्त हिन्दी भाषी प्रांतों के प्रतिभाशालियोंे में एक हैं. सच तो यह है कि वे सामयिक हिन्दी काव्य-धारा और सामयिक प्रकाशन शैली के एक सुन्दर प्रतिनिधि हैं
-महाप्राण निराला
एक अशांत आत्मा जिस के कंठ में कोमल स्वर, मस्तिष्क में सपक्ष कल्पना और हृदय में भावना का सागरजहाँ एक ही साथ समुद्र का हाहाकार, पंछी का कलरव और वंशी की तान है.
-रामवृक्ष बेनीपुरी