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भारत के हितैषी थे स्कॉटिश शासक

।। के विक्रम राव ।। अमूमन इंगलैंड से आये सत्तासीन अंगरेजों को भारतीय उपनिवेश के विकास में रुचि नहीं रही. मगर जो शासक स्कॉटलैंड प्रांत से भारत आये उनका दिल इन शोषित और पीडि़त गुलामों के लिए धड़कता रहा. मसलन, बंबई और मद्रास प्रांतों में शिक्षा की शुरुआत उन गवर्नरों ने की, जो स्कॉट थे. […]

।। के विक्रम राव ।।

अमूमन इंगलैंड से आये सत्तासीन अंगरेजों को भारतीय उपनिवेश के विकास में रुचि नहीं रही. मगर जो शासक स्कॉटलैंड प्रांत से भारत आये उनका दिल इन शोषित और पीडि़त गुलामों के लिए धड़कता रहा. मसलन, बंबई और मद्रास प्रांतों में शिक्षा की शुरुआत उन गवर्नरों ने की, जो स्कॉट थे. मुंबई तब (1836) एक मछुआरों का टापू था, जब माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने टाउन हाल बनवाया और विश्वविद्यालय की नींव रखी. उनके नाम का कॉलेज आज भी प्रतिष्ठित है. वे इतिहासवेत्ता थे.

गनीमत रही कि काशी में वे अवध के नवाब वाजिदअली शाह के सैनिकों द्वारा कातिलाना हमले में बच गये, भाग गये. तब वारेन हेस्टिंग जालिमाना तरीके से काशी नरेश चेत सिंह, अवध की बेगमों आदि की रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला रहा था. उनके उत्तराधिकारी जान मेल्काम भी स्कॉटलैंड से आये थे, जिन्होंने गवर्नर के पद से बंबई प्रांत में भारतीय कर्मियों की प्रशिक्षण द्वारा ऊंचे पदों पर नियुक्ति की प्रक्रि या चलायी. उनका स्वामीनारायण महंत से सामीप्य था, जो गुजरात क्षेत्र में वैष्णव धर्म का प्रचार कर रहे थे. लेकिन मद्रास प्रांत के गर्वनर टामस मनरो का उदाहरण तो आज भी दक्षिण भारत में सम्मान से दिया जाता है. उन्होंने प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज की स्थापना कर स्नाकोत्तर शिक्षा की बुनियाद रखी.

राजा टोडरमल ने जो काम मुगलराज में उत्तरी भू-भाग में किया, टामस मनरो ने वैसी ही रैयतवारी प्रणाली दक्षिण में की, जिससे काश्तकारों को शोषण से बचाया गया. एक बार वे बल्लारी जनपद (तब आंध्र मगर आज कर्नाटक) में स्थित मंत्रालय के स्वामी राघवेंद्रस्वामी मठ में गये. वे मठ की संपत्ति को कब्जियाने के आदेश के पालन हेतु गये. मगर द्वेत मत के अध्ययन द्वारा अनुप्राणित होकर सारी संपत्ति मठ को दे दी.

आज भी कड़प्पा (आंध्र प्रदेश) के मंदिर में टामस मनरो की प्रतिमा की आराधना होती है. वे कड़प्पा के कलेक्टर थे. चेन्नई के मध्य-भाग में उनकी घुड़सवार मूर्ति लगी है. किसी ने तोड़ी भी नहीं, क्योंकि स्कॉटलैंड का यह व्यक्ति भारतीयों का हितैषी रहा. तेलुगु और तमिलभाषी ढाई सदियों बाद भी मनरो को मनरालप्पा के नाम से याद करते हैं.इनमें भारत को योगदान के स्वरूप में तीन महापुरुष स्मरणीय हैं.

कालिन कैंपबेल देहरादून आये थे और भारत का प्रथम भौगोलिक मानचित्र बनाया. उनके बाद सर्वेयर-जनरल कार्यालय बना. भूगोल शास्त्री की भांति वनस्पतिशास्त्री भी स्कॉटलैंड से आये. नाम था एलेक्सैंडर किड्ड, जिन्होंने कलकत्ता का बोटेनिकल गार्डेन बनाया, जहां देश का प्राचीनतम वटवृक्ष आकर्षण के केंद्र है. डेविड ह्यूम स्कॉटलैंड के दार्शनिक थे, जिनकी साम्राज्यवाद विरोधी रचनाओं से भारतीय राष्ट्रवादी को अपार प्रेरणा मिली थी. लेकिन सर्वाधिक भारतभक्त रहे राष्ट्रीय कांग्रेस के चौथे अध्यक्ष तथा प्रथम गैर-हिंदुस्तानी अध्यक्ष जार्ज यूल (1888) जिन्होंने इलाहाबाद सम्मेलन का सभापतित्व किया. कोलकता नगर के शेरिफ (महापौर जैसे) रहे.

यदि स्कॉटलैंड से भारत आये इन राजनयिकों की चलती, तो भारत को स्वायत्तता स्वतंत्रता से 44 वर्ष पूर्व (1924) ही मिल जाती. स्कॉट सोशलिस्ट नेता व भारतमित्र रेम्से मैकडोनल्ड तब ब्रिटेन में साझा सरकार के प्रधानमंत्री थे. प्रथम गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया, ताकि भारतीय उपनिवेश का मसला हल हो. पर मुसलिम लीग के अडि़यलपन से यह नही हो पाया. संसद में कंजरवेटिव पार्टी के दबाव से लेबर पार्टी असहाय थी.

मैकडोनल्ड राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता करने हेतु भारत आनेवाले भी थे. लेकिन इतना संतोष स्कॉटलैंड के प्रशंसक भारतीयों को जरूर होगा कि अब 51 % वोट पाये इंगलैंड समर्थकों द्वारा 48 % स्कॉटलैंड स्वाधीनता प्रेमियों का शोषण खत्म करना पड़ेगा. विकास की गति में तेजी लानी पड़ेगी. केवल स्कॉटलैंड का तेल ही नहीं लूटना, मगर उसके आय को इंगलैंड को साझा करना पड़ेगा.

यहां स्कॉटलैंड के इतिहास से एक उपयुक्त घटना का उल्लेख आवश्यक है. बाल पाठक सर्वत्र स्कॉटलैंड के राजा राबर्ट ब्रूस की कहानी पढ़ते थे कि किस प्रकार गुफा में जाल बुनती मकड़ी को गिरते-उठते देख कर इंगलैंड से पराजित स्कॉट राजा प्रेरित हुआ और अन्तत: युद्ध जीता. यह किस्सा आज भी बोधक है, सूचक है.

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