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इंदिरा गांधी: देशभक्त, लेकिन ‘तानाशाह’

रामचंद्र गुहा, मशहूर इतिहासकार आज से तीस साल पहले इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों ने गोलियां मारकर हत्या कर दी थी. जाने-माने इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने यह लेख पांच साल पहले उनकी 25वीं पुण्यतिथि पर लिखा था. इसमें उन्होंने भारत की शायद सबसे ज़्यादा विवादित और जानी-मानी नेता की विरासत को याद किया […]

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आज से तीस साल पहले इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों ने गोलियां मारकर हत्या कर दी थी.

जाने-माने इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने यह लेख पांच साल पहले उनकी 25वीं पुण्यतिथि पर लिखा था.

इसमें उन्होंने भारत की शायद सबसे ज़्यादा विवादित और जानी-मानी नेता की विरासत को याद किया है.

पढ़िए रामचंद्र गुहा का पूरा लेख

साल 1965 की गर्मियों में इंदिरा गांधी दिल्ली से लंदन शिफ़्ट होने की सोच रही थीं.

उस समय वह प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में कनिष्ठ मंत्री थीं. शास्त्री उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने थे.

इंग्लैंड के प्रति आकर्षण

राजनीति में उनकी तरक़्क़ी की गुंजाइश क्षीण थी और वह निजी कारणों से भी इंग्लैंड की ओर आकर्षित थीं.

उनके बेटे राजीव और संजय ब्रिटेन में ही पढ़ रहे थे और इसके अलावा वह लंदन में कला और संस्कृति में अपनी रुचि को बढ़ा सकती थीं.

लेकिन अंततः उन्होंने अपने देश में ही रुकने का फ़ैसला किया और इसका उन्हें बेहद अप्रत्याशित फल भी मिला.

जब 1966 की जनवरी में लाल बहादुर शास्त्री की हृदयाघात से मौत हुई तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने को कहा गया. यह फ़ैसला कांग्रेस पार्टी का संचालन करने वाले कुटिल बुजुर्गों के समूह ‘सिंडिकेट’ ने किया था.

उनका अनुमान था कि नेहरू की बेटी को आगे करने से अल्पकाल में दो प्रधानमंत्रियों की मौत के बाद देशवासियों को अपने साथ करना आसान रहेगा. इसके अलावा, उनके अनुसार वह इतनी नौसिखिया थीं कि उन्हें अपने हिसाब से चलाना आसान रहेगा.

पद संभालने के बाद शुरुआती झिझक के बाद इंदिरा गांधी में आत्मविश्वास आ गया.

‘सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री’

1969 में उन्होंने ख़ुद को ‘सिंडिकेट’ से आज़ाद कर लिया और उन्हें प्रतिक्रियावादियों के धड़े के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि वह ख़ुद उस वक़्त की प्रगतिशील ताक़तों की प्रतिनिधि थीं.

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उन्होंने बैंकों, खदानों, तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, पूर्व महाराजाओं की पदवियां और सुविधाएं ख़त्म कर दीं और 1971 का आम चुनाव ‘ग़रीबी हटाओ’ के जोशीले नारे के साथ जीत लिया.

चुनाव जनवरी में हुए थे और इसी साल के आख़िरी महीने में इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान पर भारतीय सेना की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके बाद एक नए स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ.

मध्यवर्ग के एक ख़ास धड़े में इंदिरा गांधी बेहद लोकप्रिय बनी रहीं.

अंग्रेज़ी भाषा की पत्रिकाओं के सर्वेक्षणों में उन्हें आमतौर पर ‘भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री’ बताया गया.

यह समर्थन मुख्यतः 1971 की जंग में उनके रूख़ की वजह से था जो 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के दौरान उनके पिता के दुखद नेतृत्व की तुलना में एकदम अलग था.

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अन्य लोग पूरे देश के साथ उनकी पहचान (हालाँकि उनकी पैदाइश और परवरिश उत्तर भारत की थी, लेकिन दक्षिण भारत से उन्हें विशेष प्रेम था) की वजह से उनकी तारीफ़ करते थे. समाजवादी उनके ग़रीब-समर्थक भाषणों के चलते उनसे सहानुभूति रखते थे.

लेकिन, दूसरी तरफ़ बहुत से ऐसे भारतीय भी हैं जो कि उनकी विरासत के प्रति उदासीन हैं.

वह लोग इंदिरा गांधी की ‘तानाशाही’ प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो उनके चमत्कारिक साल- 1971, के बाद सामने आईं.

‘तानाशाह’

उस वक़्त उन्होंने ‘समर्पित अफ़सरशाही’ और ‘समर्पित न्यायपालिका’ की मांग की. वह इससे पहले, स्वायत्त रही इन संस्थाओं को सत्ताधारी नेताओं की इच्छा और सनक के हिसाब से चलाना चाहती थीं.

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1974 में जाने-माने गांधीवादी जयप्रकाश नारायण ने सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन चलाया. जून 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री को चुनावी गड़बड़ी का दोषी पाया.

इंदिरा गांधी ने राजनीतिक और न्यायिक स्तर पर उठी इन चुनौतियों का जवाब आपातकाल लगाकर दिया. प्रेस सेंसर लगा दिया गया और विपक्ष के सैकड़ों नेताओं को जेल में डाल दिया गया.

आपातकाल जनवरी 1977 तक जारी रहा. मार्च में हुए चुनाव में चार अलग-अलग दलों से बने गठबंधन जनता पार्टी ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका.

हालांकि, नई सरकार तीन साल से भी कम वक़्त चली और अपने ही अंतर्विरोधों के चलते गिर गई. 1980 में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की ‘स्थायित्व’ के नाम पर फिर सत्ता में वापसी हो गई.

उनके चौथे कार्यकाल के पहले दो साल तो शांत ही रहे, लेकिन अचानक उनके सामने आंध्र में असंतोष, उत्तर-पूर्व में अलगाववाद और पंजाब में पूरे स्तर पर विद्रोह शुरू हो गया.

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उस वक़्त दावा किया गया था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब में समस्या को और भड़काया था ताकि जब 1985 में चुनाव हों तो वह ख़ुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश कर सकें जो भारत और अराजकता के बीच खड़ी हैं.

जून 1984 में उन्होंने सेना को स्वर्ण मंदिर में प्रवेश का आदेश दिया, जहां सिख चरमपंथियों का एक गुट छिपा हुआ था. इस कार्रवाई में ‘आतंकवादी’ तो मारे गए, लेकिन इसमें परिसर की दूसरी सबसे पवित्र इमारत को भी नुक़सान हुआ.

पांच महीने बाद दो सिख सुरक्षा गार्डों ने बदला लेने की भावना से गोलियां मारकर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी.

देशभक्त

ताजमहल देखने के बाद ऐल्डस हक्सले ने कहा था, "मुझे दिख रहा है कि संगमरमर बहुत से अपराधों को छुपाए हुए है."

इसी तर्ज़ पर, इस तथ्य ने कि वह एक ‘शहीद’ की मौत मरीं- और अपने सिख कर्मचारियों को बाहर निकालने की सलाहों को तिरस्कारपूर्ण ढंग से नकारने के बाद, मृत्युपरांत इंदिरा गांधी के आकलन में उनकी बहुत सी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.

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इसमें संदेह नहीं कि वह पूरी तरह देशभक्त थीं, न ही इसमें कि उन्होंने 1971 के शरणार्थी संकट (जब पूर्वी पाकिस्तान से 90 लाख लोगों ने भारत में शरण ली थी) और उसके बाद की जंग में भारत का कुशलता से नेतृत्व किया.

इसके साथ ही इतिहासकारों का दायित्व है कि उनकी असफलताओं को भी दर्ज करें.

विफलताएं

इनमें सबसे बड़ी है सार्वजनिक संस्थाओं को विकृत करना.

नेहरू के समय में अफ़सरशाही और न्यायपालिका को राजनीतिक दख़लअंदाज़ी से अलग रखा गया था. नियुक्ति, तैनाती और तरक़्क़ी मेहनत और क्षमता के आधार पर तय होती थी.

इंदिरा गांधी ने एकदम जुदा (और बेहद नुक़सानदेह) चलन शुरू किया. जहां मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री अधिकारियों की तैनाती रिश्तेदारी या वफ़ादारी के आधार पर करते थे.

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इस तर्ज़ पर जिन संस्थाओं को बर्बाद किया गया उनमें से एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी थी.

नेहरू के समय में कांग्रेस सचमुच एक विकेंद्रीकृत और लोकतांत्रिक पार्टी थी, जिसमें ज़िला और राज्य समितियों का चयन पार्टी के आंतरिक चुनाव के आधार पर होता था.

मुख्यमंत्री का चयन राज्य के चुने हुए विधायक करते थे. लेकिन इंदिरा गांधी ने इसके विपरीत कांग्रेस को अपना ही एक रूप बनाने के लिए लगातार काम किया.

पार्टी के आंतरिक चुनाव बंद कर दिए गए. मुख्यमंत्री का चयन सिर्फ़ वही करती थीं.

लेकिन यह सब यहीं तक सीमित नहीं था.

‘परिवारवाद की जनक’

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चूंकि इंदिरा गांधी जानती थीं कि वह अमर नहीं हैं और क्योंकि वह अपने अलावा किसी और पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकती थीं, इसलिए वह अपने बेटों को भी राजनीति में ले आईं.

1976 से संजय गांधी उनके नज़दीक रहकर काम करते रहे. यह माना जाता रहा कि जब वह रिटायर होंगी या उनकी मौत होगी तो वह उनकी जगह लेंगे.

जब जून 1980 में संजय की असमय मृत्यु हो गई तो इसी विचार के साथ उनके बड़े भाई राजीव को राजनीति में लाया गया.

कांग्रेस के एक पारिवारिक व्यवसाय के रूप में बदलाव का अन्य पार्टियों ने भी अनुसरण किया. यह मानना संभव नहीं कि इंदिरा गांधी ने अकाली दल या द्रमुक को यह राह नहीं दिखाई थी. आज ये एक परिवार के हितों की रक्षा करने वाली पार्टियां बन गई हैं.

यह आलोचना क़त्तई भी पीछे की ओर देखकर नहीं की जा रही है. यह तो उसी समय की गई थी, जैसे कि उनकी आर्थिक नीतियों की आलोचना.

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साठ के दशक के अंत तक भारत ने आत्मनिर्भर आर्थिक विकास पर ज़ोर देकर औद्योगिक क्षमता और प्रौद्योगिकी का एक आधार हासिल कर लिया था.

हालांकि, अर्थव्यवस्था को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के बजाय इंदिरा गांधी ने शिकंजा कसे रखा जिसकी वजह से (जैसा की उम्मीद थी) कुल मिलाकर अक्षमता और भ्रष्टाचार ही बढ़ा.

हालांकि अंततः 1991 में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ, लेकिन दो दशक वैचारिक हठधर्मिता और निजी सुविधा की भेंट चढ़ गए.

महान देशभक्त, लेकिन बेहद दोषपूर्ण लोकतंत्रवादी- भारत की 1966 से 1977 और फिर 1980 से 1984 तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी को इतिहास को ऐसे ही याद रखना चाहिए.

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