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सियासी हवा से कितना बदला जेएनयू और डीयू

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में डीयू ने देश के राजनीतिक मिज़ाज के हिसाब से वोट दिया लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रवैया इसके ठीक उलट रहा. वैसे इन चुनाव में ये भी उल्लेखनीय है कि डीयू के चुनाव में जहाँ वामपंथी संगठन आइसा को मिले वोट बढ़े हैं तो वहीं […]

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में डीयू ने देश के राजनीतिक मिज़ाज के हिसाब से वोट दिया लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रवैया इसके ठीक उलट रहा.

वैसे इन चुनाव में ये भी उल्लेखनीय है कि डीयू के चुनाव में जहाँ वामपंथी संगठन आइसा को मिले वोट बढ़े हैं तो वहीं जेएनयू में एबीवीपी ने भी पैठ बनाई है.

कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई का डीयू में एक भी सीट न जीत पाना उसके लिए झटका है.

डीयू में एबीवीपी को जहाँ चार साल के स्नातक कार्यक्रम के पुरजोर विरोध का फ़ायदा मिलता दिखा है वहीं आइसा जैसे संगठन के लिए फ़ायदे की बात ये है कि उनकी अभिभावक पार्टी कभी सत्ता में ही नहीं रही तो अपने किसी रिकॉर्ड का बचाव करने की नौबत ही नहीं आती.

छात्रसंघ चुनाव नतीजों पर पढ़िए ये विश्लेषण

दिल्ली स्थित दो विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव नतीजों में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यही है कि जेएनयू के वामपंथी किले को एबीवीपी भेद नहीं पाई. यह कहना शायद सही नहीं होगा कि अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न रहने की जेएनयू (जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय) की परंपरा इस बार भी कायम रही.

इसलिए कि सेंट्रल पैनल में उपाध्यक्ष और महासचिव पदों पर विजयी उम्मीदवारों के निकटतम प्रतिद्वंद्वी एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के ही प्रत्याशी रहे. फिर एबीवीपी का दावा है कि उसके कई काउंसलर जीते हैं.

इसके बावजूद जेएनयू में उभरी सूरत उस राजनीतिक वातावरण के विपरीत है, जो 2014 के आम चुनाव के नतीजों से देश में बना है. दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के छात्रों पर लोकसभा चुनाव में चली ‘मोदी लहर’ का खूब असर नजर आया. नतीजतन, 18 वर्ष बाद सभी चार पद एबीवीपी की झोली में जा गिरे.

आइसा

अध्यक्ष को छोड़ दें तो बाकी तीन पदों पर मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस समर्थित- नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) डीयू में काफी मतों से पिछड़ी. तो प्रश्न है कि आखिर इन अंतर्विरोधी परिणामों को कैसे समझा जाए?

बहरहाल, इस सवाल पर आने से पहले यह बताना जरूरी है कि इन दोनों विश्वविद्यालयों में सीपीआई (एमएल-लिबरेशन) से जुड़ी ऑल इंडिया स्टूडेंड्स एसोसिएशन (आइसा) कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को ना चाहने वाले छात्रों की पहली पसंद बनी हुई है.

बल्कि इस भूमिका में उसने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है. डीयू में उसके वोटों में इस बार खासा इजाफा हुआ. जेएनयू में पिछले छात्र संघ में उसके पदाधिकारियों पर यौन शोषण जैसे गंभीर आरोप लगे थे.

फिर भी इस बार वह वहां सेंट्रल पैनल के चारों पद जीतने में सफल रही. हालांकि उसके वोटों में गिरावट आई है.

निर्णायक भूमिका

फिलहाल, सोचने वाली बात यह है कि आखिर उसकी राजनीति में ऐसा क्या है, जो स्थापित राजनीतिक धाराओं का विकल्प चाहने वाले युवाओं को आकर्षित कर रहा है?

गौरतलब है कि जेएनयू और डीयू की छात्र राजनीति की संस्कृति शुरू से ही अलग रही है. जेएनयू कैंपस यूनिवर्सिटी है. उसे एक खास योजना के तहत बनाया गया था. वहां पढ़ाई-लिखाई का सबसे अलग माहौल रहा है. वहां छात्र राजनीति शुरू से ही अपेक्षाकृत उच्च बौद्धिक स्तर लिए रही.

इसमें विचारधारात्मक बहस-मुबाहिसे की निर्णायक भूमिका बनी रही है. महज लुभावने नारों, जुमलेबाजी या जज्बाती भाषणों से इसमें पैठ बनाना अब तक संभव नहीं हुआ है. यही माहौल यहां वामपंथी छात्र संगठनों की ताकत है.

राजनीतिक रुझान

सभी वामपंथी संगठनों को मिले वोटों को जोड़ कर देखा जाए तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह वातारण आज के इस दौर में भी कितना सशक्त है. जबकि देश की सियासत में वामपंथी दलों का अभूतपूर्व पराभव हो गया है.

डीयू में यह कवच नहीं है. वहां छात्र राजनीति आम राजनीतिक रुझानों और भावनाओं के मुताबिक चलती है. इस बार एबीवीपी को बेशक नरेंद्र मोदी के पक्ष में जारी माहौल का लाभ मिला.

लेकिन ताज़ा कामयाबी की एक बड़ी वजह चार साल के अंडरग्रैजुएट कोर्स के खिलाफ इस संगठन का संघर्ष भी है. केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार बनने के बाद यह कोर्स बदला, जिसका श्रेय एबीवीपी को मिलना लाजिमी ही है.

ध्रुवीकरण

इसके बावजूद अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई का प्रत्याशी महज तकरीबन 900 वोटों से हारा, तो यह एनएसयूआई के लिए तसल्ली की बात होनी चाहिए. क्या एनएसयूआई को भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण का फायदा मिला? यह अटकल का विषय है. बहरहाल, आइसा की ताकत बढ़ी.

इसे निर्विवाद रूप से इस संगठन की बड़ी उपलब्धि समझा जाएगा. इसके पीछे वजह क्या है? इस बारे में कुछ अनुमान लगाए जा सकते हैँ. एक तो यह कि लिंगदोह समिति की रिपोर्ट के लागू होने के बाद से डीयू में छात्र संघ चुनाव पहले की तरह सिर्फ संसाधनों की जोर-आजमाइश नहीं रह गया है.

इससे वहां भी मुद्दों पर समर्थन जुटाने की गुंजाइश बनी है. इसका लाभ आइसा को मिला है. दूसरी वजह वो है, जो संभवतः दोनों विश्वविद्यालयों में उसकी शक्ति का आधार है. आइसा की अभिभावक पार्टी कहीं और कभी सत्ता में नही रही.

परंपरा

इसलिए उस पर अपनी किसी (वर्तमान या पूर्व) सरकार के रिकॉर्ड का बचाव करने का बोझ नहीं होता. ऐसी ताकतों के साथ ये सहूलियत होती है कि वे सिर्फ विरोध करते हुए अपने लिए समर्थन जुटा सकते हैं.

वे किस चीज के समर्थक हैं- यह बात अक्सर चर्चा से गायब रहती है. वे किन चीजों के खिलाफ हैं (जो वे लगभग सभी उपस्थित एवं प्रासंगिक चीजों के होते हैं), इसे उग्र स्वर में प्रचारित करते हुए- जनसमूहों खासकर नएपन और बदलाव की भावना से प्रेरित युवाओं की लोकप्रियता वे हासिल कर लेते हैं.

जेएनयू और डीयू में यह होते दिखा है. निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि दोनों विश्वविद्यालयों में दिखे रुझान उनकी अपनी-अपनी परंपरा के अनुरूप ही हैं. देश की सियासी हवा उन्हें ज्यादा नहीं बदल पाई.

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