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हारे को इवीएम

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार आदमी की ‘जितीविषा’ इतनी जबरदस्त है कि उनकी ‘जिजीविषा’ को भी मात देती है. जी हां, यह मेरी बिलकुल ताजा खोज है. जिजीविषा जीने की इच्छा को कहते हैं, तो जितीविषा जीतने की इच्छा को, और जीतने की यह इच्छा आदमी में इतनी ज्यादा प्रबल है कि उसकी जीने की […]

डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
आदमी की ‘जितीविषा’ इतनी जबरदस्त है कि उनकी ‘जिजीविषा’ को भी मात देती है. जी हां, यह मेरी बिलकुल ताजा खोज है. जिजीविषा जीने की इच्छा को कहते हैं, तो जितीविषा जीतने की इच्छा को, और जीतने की यह इच्छा आदमी में इतनी ज्यादा प्रबल है कि उसकी जीने की इच्छा पर भी भारी पड़ती है. जीत जायें, भले ही उसके बाद फिर जी न पायें. जीतने के लिए चाहे मरना ही क्यों न पड़े.
कहते हैं, किसी गुरु को कर्मकांड में बड़ा विश्वास था, जबकि उसके खास शिष्य को नहीं था. गुरु का पूरा सम्मान करते हुए भी शिष्य उनसे मतभेद रखता था. वह समय ही अलग था, जब मतभेद रखते हुए भी शिष्य अपने गुरु को न केवल गुरु मानता रहता था, बल्कि उसके प्रति आदर-भाव भी रखता था.
आज तो मतभेद होते ही शिष्य अपने गुरु की खाट खड़ी करने की पहले सोचता है और तब तक चैन की सांस नहीं लेता, जब तक उसे नाकों चने नहीं चबवा देता. जब और कुछ बस नहीं चला, तो उन गुरु जी ने अपने शिष्य को सबक सिखाने के लिए मरने का नाटक किया. गुरु को मरा देख शिष्य उनकी आस्था के अनुसार पूरे कर्मकांड के साथ उनका अंतिम संस्कार करने लगा. सही समय पर गुरु जी उठ कर खड़े हो गये और बोले, ‘आखिर जताया न तूने भी कर्मकांड में विश्वास? जीत गया न मैं!’ इस पर शिष्य ने गुरु जी को प्रणाम करते हुए कहा, ‘हां, लेकिन आप मर कर ही जीत पाये.’
जीतने की यह इच्छा आदमी को अपनी हार स्वीकार नहीं करने देती. हार कर भी वह अपनी हार नहीं मानता और उसका ठीकरा दूसरों पर फोड़ता है. ऐसे समय के लिए ही उसने कुछ कहावतें बना रखी हैं, जो मुसीबत में उसका सहारा बनती हैं. जैसे कि नाच न जाने आंगन टेढ़ा. आदमी को नाचना न आता हो, तो वह आंगन को टेढ़ा बता कर हीनभावना से मुक्त हो सकता है. नाचनेवाले तो न आंगन की परवाह करते हैं, न धुन की. वे कहीं भी नाच लेते हैं और किसी भी धुन पर नाच लेते हैं. उनकी नाचने की धुन किसी धुन-विशेष की मोहताज नहीं होती. बारात में नाचनेवाले ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ गाने पर भी नागिन-डांस कर सकते हैं.
ऐसे ही वक्त खिसियानी बिल्ली खंभा नोचने लगती है. उसकी टाइमिंग देखते ही बनती है. वह तभी खिसियाती है, जब नोचने के लिए एक अदद खंभा उपलब्ध हो. कुत्ते की तरह उसकी खिसियाहट भी, कुछ भिन्न रूप में ही सही, खंभा देख कर ही निकलती है. इमरजेंसी में वह आसपास की किसी भी चीज से खंभे का काम ले सकती है. आजकल खिसियानी बिल्लियों की यह खिसियाहट इलेक्ट्रॉिनक वोटिंग मशीन यानी इवीएम पर उतर रही है.
पहले ‘हारे को हरिनाम’ होता था, आजकल ‘हारे को इवीएम’ है. हर हारा हुआ कह रहा है कि वह हारा नहीं है, बल्कि इवीएम द्वारा हराया गया है. पहले इसी इवीएम ने उन्हें जिताया था, तब कोई समस्या नहीं थी. यूपी में हारे हुए को सिर्फ यूपी में ही इवीएम की गड़बड़ी दिखती है, पंजाब में नहीं, तो पंजाब में हारे हुए को पहले दिल्ली में इवीएम द्वारा ही बाकी सबका सूपड़ा साफ होने पर कोई गड़बड़ी नहीं लगी थी.
इनमें से किसी को भी जनता की काबिलियत पर भरोसा नहीं कि वह भी उन्हें हरा सकती है. वे समझते हैं कि एक वे ही जनता को मूर्ख बना सकते हैं, एक उन्हीं में जनता को ठगने का कौशल है. उन्हें जरा भी नहीं लगता कि जनता किसी दूसरे से भी ठगी जाना पसंद कर सकती है. पता नहीं, उन्हें जनता का पता भी है या नहीं. पूछने पर कहीं यह न कह दें, कौन जनता?

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