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आत्महत्या की उच्च शिक्षा
प्रभात रंजन कथाकार अभी कुछ दिन पहले ही जेएनयू में एमफिल के शोध छात्र रजनी कृष की आत्महत्या ने एक बार फिर से इस बात को उजागर कर दिया है कि उच्च अध्ययन के शिक्षा संस्थानों में भेदभाव बढ़ता जा रहा है. रजनी ने अपने अंतिम फेसबुक पोस्ट में लिखा था, ‘समानता से वंचित करना […]
प्रभात रंजन
कथाकार
अभी कुछ दिन पहले ही जेएनयू में एमफिल के शोध छात्र रजनी कृष की आत्महत्या ने एक बार फिर से इस बात को उजागर कर दिया है कि उच्च अध्ययन के शिक्षा संस्थानों में भेदभाव बढ़ता जा रहा है. रजनी ने अपने अंतिम फेसबुक पोस्ट में लिखा था, ‘समानता से वंचित करना हर चीज से वंचित करना है.’
भारत में उच्च शिक्षा की परिकल्पना के पीछे यही उद्देश्य था कि समाज से ऊंच-नीच, जाति-धर्म की भावना का अंत हो और एक समरस समाज की स्थापना हो सके. समाज से गैर-बराबरी का अंत हो सके. लेकिन व्यवहार में क्या हो रहा है? पिछले साल हैदराबाद विवि के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने भी विश्वविद्यालयों में जातिगत भेदभाव के मुद्दे को उजागर कर दिया था. वेमुला ने भी लिखा था, ‘आदमी के साथ कभी उसके मस्तिष्क के आधार पर बरताव नहीं किया जाता.’
इस समय भारत में उच्च शिक्षा को लेकर बहस गंभीर है कि क्या भारत में उच्च शिक्षा हमें एक भारतीय के रूप में सोचने-समझने लायक बनाती है? स्कूली शिक्षा पानेवालों में से महज 11 प्रतिशत बच्चे उच्च शिक्षा की तरफ आगे कदम बढ़ाते हैं. लेकिन, उनमें से भी जातिगत भेदभाव के कारण बहुत सारे बच्चे उच्च शिक्षा से विमुख हो जाते हैं. जिस शिक्षा को समाज में गैरबराबरी को खत्म करनेवाला माना गया था, उसके कारण आज समाज में गैरबराबरी की बात बार-बार उभर कर आ रही है.
उच्च शिक्षा के संस्थान आज कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं. इसमें जातिगत भेदभाव की चुनौती के अलावा उन्मुक्त विचार अभिव्यक्ति का संकट भी है. पहले इन संस्थानों में विद्यार्थी खुल कर अपनी राय रखते थे, हर विषय पर बहस करते थे. कोई भय नहीं होता था. लेकिन, अब दिल्ली विवि या जेएनयू में ऐसा माहौल नहीं रह गया है. जिन विश्वविद्यालयों की परिकल्पना के पीछे जनतांत्रिकता का मूल्य था, वहां अब जनतांत्रिकता का लोप होता जा रहा है.
इस बात को लेकर बहस होनी चाहिए कि एक तरफ स्कूली शिक्षा का तनाव, मां-पिता की महत्वाकांक्षा बच्चों को आत्महत्या की तरफ ले जाता है, तो दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव हो रहा है. आज कोटा जैसे शहरों में हर साल कई बच्चे अपने मां-बाप के सपनों को पूरा न कर पाने के तनाव में आकर आत्महत्या कर रहे हैं. यह सोचने की बात है कि जिस शिक्षा की परिकल्पना इस रूप में की गयी थी कि वह देशवासियों को मस्तिष्क को स्वतंत्र बनायेगा, आज उसी शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य गुलाम मानसिकता को तैयार करना लगने लगा है.
यह संकल्पना कहीं पीछे चली गयी है कि विश्वविद्यालयों का खुला माहौल विद्यार्थियों को वैज्ञानिक, चिंतक, लेखक, पत्रकार बनाता है. लेकिन, जब अनुशासन के नाम पर, किसी खास विचारधारा के नाम पर अन्य आवाजों को दबाया जाता है, तो माहौल दमघोंटू बनता जाता है और विद्यार्थी आत्महत्या का रास्ता अपनाने लगते हैं. लोहिया की यह बात आज किसको याद रह गयी है- ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या हो या चपरासी की हो संतान/ बिड़ला या गरीब का बेटा, सबकी शिक्षा एक समान.’
करीब दो दशक पहले अमेरिका में मैनेजमेंट गुरु माने जानेवाले पीटर ड्रकर ने लिखा था- ‘आनेवाले समय में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जायेगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जायें, लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जायेगा कि वहां की शिक्षा का स्तर किस तरह का है.’
रोहित वेमुला और अब रजनी कृष की आत्महत्या ने यह बता दिया है कि भारत में उच्च शिक्षा किस दिशा में जा रही है!
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