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हृदय-परिवर्तन का मौसम

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार चुनाव का मौसम हृदय-परिवर्तन का मौसम भी होता है. ‘चुनाव’ में जो ‘नाव’ मौजूद है, वह अत्यंत महत्व रखती है, क्योंकि उसी में चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवार माल भर कर ले जाता है, जिसके लिए कि वह असल में चुनाव लड़ने आया होता है. कबीर ने जो यह कहा […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

चुनाव का मौसम हृदय-परिवर्तन का मौसम भी होता है. ‘चुनाव’ में जो ‘नाव’ मौजूद है, वह अत्यंत महत्व रखती है, क्योंकि उसी में चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवार माल भर कर ले जाता है, जिसके लिए कि वह असल में चुनाव लड़ने आया होता है.

कबीर ने जो यह कहा है कि ज्यों जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम, दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम, वह असल में चुनाव जीतने के इच्छुक उम्मीदवारों के लिए ही कहा है. कबीर कहते हैं कि चुनाव इसलिए लड़ा जाता है कि जीतने पर घर रुपये-पैसे से इस तरह भर जाये, जैसे उफनती नदी में तैरती-उतराती नाव में पानी भर जाता है और सयाने नेताओं का काम यही है कि जिस तरह नाव में पानी भरने पर उसे दोनों हाथों से उलीचा जाता है, उसी तरह अपना घर भी दोनों हाथों से उलीच-उलीच कर रुपये-पैसों से भरा जाये. इसके लिए जीतने के इच्छुक उम्मीदवार को बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और पापड़ बेलते-बेलते भी यह ध्यान रखना पड़ता है कि पापड़ बेलना अपने-आपमें लक्ष्य नहीं है, बल्कि पापड़ बेल कर चुनाव की नाव पार लगाना लक्ष्य है.

लेकिन, व्यापक स्तर पर पापड़ बेलने के बाद भी जब उम्मीदवार को चुनाव की नाव पार लगती नहीं दिखती, तो उसका ईमान, जो कि पहले से ही काफी डिगा होता है, बिलकुल ही डिग जाता है और फलस्वरूप उसका हृदय-परिवर्तन होने लगता है. यह हृदय-परिवर्तन कई तरह से होता या हो सकता है. जैसे कोई हिंदू-मुसलमान की बात करता-करता विकास की बात करने लगे या विकास की बात करता-करता मंदिर-मसजिद पर आ जाये. बच्चन ने जो यह कहा है कि मंदिर-मसजिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला, वह कुछ ज्यादा ही कह गये, वरना सच बात यह है कि जितना और जैसा मेल मंदिर-मसजिद कराते हैं, वैसा मधुशाला कभी नहीं करा सकती.

मधुशाला में होनेवाला मेल तो तात्कालिक होता है- आये, मिले, पी और रुखसत हो गये. जबकि मंदिर-मसजिद द्वारा कराया गया मेल जन्म-जन्मांतर का होता है, क्योंकि उसके बाद आम लोगों का जन्म-मरण में तब्दील हो जाने के कारण उनका जन्मांतर होने में देर नहीं लगती. चुनावी भाषा में इस मेल को ‘ध्रुवीकरण’ कहते हैं, जिसे साधना हर उम्मीदवार की साध होती है. इससे गैरों के वोट विपक्षी के पास बेशक चले जाते हैं, पर अपनों के वोट भी पक्के तौर पर अपने को मिल जाते हैं.

अंगरेजी में ‘विन-विन’ और हिंदी में ‘तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय’ सुनिश्चित करनेवाले इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को लोग बेवजह बदनाम करते हैं.

लेकिन, हृदय-परिवर्तन का यह केवल एक पक्ष है, जो अपनी ही पार्टी में रहते हुए हो जाया करता है. हृदय-परिवर्तन का दूसरा और असली पहलू पार्टी बदलने से ताल्लुक रखता है. इसमें दिल बदलता ही दल बदलने के लिए है. आम तौर पर अपने को या अपने बेटे-बेटी को पार्टी का टिकट न मिलने से नेता का दिल एकाएक जोरों से धड़कने लगता है और उस दल में जाकर ही चैन पाता है, जो उन्हें टिकट देने के लिए तैयार हो जाता है.

दूसरा दल उन्हें ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’ के शाश्वत सिद्धांत का अनुसरण करते हुए गले से लगा लेता है, तो यही उदात्त व्यवहार पहला दल दूसरे दल के पापियों के साथ करता है. दूसरे दल में जाकर वह नेता सालेह नदीम के शब्दों में मामूली हेर-फेर के साथ कहने लगता है- दल बदला शक्लें बदलीं, तुम भी बदलो आईनो! उधर जो नेता किसी कारण ऐसा नहीं कर पाते, वे जहीर देहलवी की तरह कहते ही रह जाते हैं- कुछ सहारा भी हमें रोज-ए-अजल ने न दिया, दल बदलने न दिया, बख्त बदलने न दिया!

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