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लेखक लिखता क्यों है?

प्रभात रंजन कथाकार हाल में ही एक कॉलेज में मुझे बतौर लेखक बोलने के लिए बुलाया गया था. वहां एक विद्यार्थी ने अचानक यह सवाल पूछ दिया कि आप क्यों लिखते हैं? मैं अचकचा गया और कुछ बोल नहीं पाया. सवाल आसान लगता है, लेकिन इसका जवाब आसान नहीं है. मुझे याद आया कि 1980 […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हाल में ही एक कॉलेज में मुझे बतौर लेखक बोलने के लिए बुलाया गया था. वहां एक विद्यार्थी ने अचानक यह सवाल पूछ दिया कि आप क्यों लिखते हैं? मैं अचकचा गया और कुछ बोल नहीं पाया. सवाल आसान लगता है, लेकिन इसका जवाब आसान नहीं है. मुझे याद आया कि 1980 के दशक के मध्य में जब दूरदर्शन पर ‘बुनियाद’ धारावाहिक का प्रसारण होता था, तब उसमें मास्टर हवेलीराम का एक संवाद था, ‘मैं कलम से इन्कलाब लाना चाहता हूं.’ मुझे वह संवाद बहुत प्रभावित करता था. तब मैं लेखक बनने का सपना देखता था. आज मैं भी यह नहीं समझ पाता कि मैं लिखता क्यों हूं.

यह बहुत जरूरी सवाल है. खासकर आज के युवा लेखकों के लिए. आज हिंदी में युवा लेखन का जलवा है. 1950-60 के दशक के बाद हिंदी में युवा रचनाशीलता का ऐसा सहज स्वीकार कभी नहीं हुआ.

लेकिन, यह सवाल क्या आज के लेखकों को भी परेशान करता होगा? क्या लिखने से पहले वे ठहर कर इस पर विचार करते होंगे कि वे क्यों लिखते हैं? जब मैंने या मेरी पीढ़ी के लेखकों ने लिखना शुरू किया था, तब लिखते समय कभी प्रेमचंद की वह उक्ति सामने आ जाती थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है. उस दौर में यह बहस बहुत तेज थी- सोद्देश्य लेखन बनाम लोकप्रिय लेखन. गंभीर लेखक सोद्देश्यता की इसी लाठी का इस्तेमाल करके लोकप्रिय लेखकों को निरुद्देश्य बताते थे और उनकी पिटाई करते थे. एक निकष जनवाद था, जिसने हिंदी में न जाने कितना कुछ हाशिये पर डाल दिया.

लेखकों का एक वर्ग उस दौर में ऐसा भी था, जो कहता था कि उनका लेखन स्वांत: सुखाय है. कोई और पढ़ ले तो ठीक, नहीं तो अपने मन को संतोष मिलता है कि मन का लेखन किया. एक रीतिकालीन कवि ने लिखा था- आगे के सुकवि रिझिहें तो कविताई न तु/ राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो हैं…

कहने का मतलब था कि वह ऐसा दौर था जब हर लेखक के सामने कुछ आदर्श होता था लेखन के लिए. वह उसी आदर्श को, अपने उसी विचार को मूर्त रूप देने के लिए साहित्य लेखन में हाथ आजमाता था. उसी दौर में मुझे दो लेखक याद आते हैं, कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी.

दोनों यह मानते थे कि लेखक को हर माध्यम के लिए लिखना चाहिए, मनोरंजन में थोड़ा बहुत वैचारिकता, आदर्शों की छौंक लगाते हुए लिखना चाहिए, ताकि सदसाहित्य न सही सद्विचार अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे. बहरहाल, एक बात सामान्य थी उन दिनों कि लेखक पूर्ण मसिजीवी होता था. वह जिस उद्देश्य से भी लिखता हो, लेकिन अपनी कलम को स्वतंत्र रखते हुए लेखन करता था और उसी से जो आय होती थी, उसी में गुजर-बसर करता था. गोपाल सिंह नेपाली की कविता की पंक्ति याद आती है- ‘मेरा धन है स्वाधीन कलम’.

यह साहित्य के आदर्शों के टूटने और यथार्थ से रूबरू होने का दौर है. मुझे वरिष्ठ जासूसी उपन्यास लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक की बात याद आती है कि साहित्य को टूथपेस्ट, साबुन की तरह बिकना चाहिए. इसी में उसकी सफलता है.

हम इस सच्चाई से आंख नहीं चुरा सकते कि इस युग में ‘बिकना’ एक साहित्य का मुहावरा बन चुका है, जिस ‘बिकना’ को एक जमाने में लेखक के लिए बहुत घृणित बात माना जाता था. वैसे ‘बिकना’ बाजार का मुहावरा है. अब भी मुझे यह नहीं लगता कि कोई लेखक महज इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर लिखता होगा कि उसे खूब बिकना है. मुझे मार्केज का वह कथन याद आता है- ‘मैं इसलिए लिखता हूं, क्योंकि मैं अधिक से अधिक लोगों का प्यार पाना चाहता हू!’

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