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लौट के सिद्धू घर को आये

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार चुनाव का मौसम कई मजेदार चीजें साथ लेकर आता है. वैसे अनुभवी लोग उन्हें मजेदार के बजाय मजेदारू ज्यादा समझते हैं, यानी ऐसी चीजें, जिनका दारू के साथ मजा लिया जाता है या जिनमें दारू की वजह से मजा आता है. चुनाव में खड़े होनेवाले उम्मीदवार तो अपनी जीत सुनिश्चित […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

चुनाव का मौसम कई मजेदार चीजें साथ लेकर आता है. वैसे अनुभवी लोग उन्हें मजेदार के बजाय मजेदारू ज्यादा समझते हैं, यानी ऐसी चीजें, जिनका दारू के साथ मजा लिया जाता है या जिनमें दारू की वजह से मजा आता है. चुनाव में खड़े होनेवाले उम्मीदवार तो अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पूरे चुनाव को ही मजेदारू बनाने की कोशिश करते हैं, जबकि चुनाव आयोग चाहता है कि जनता बिना दारू के ही चुनाव के मजे ले, क्योंकि उसके अनुसार, तभी वह नाउम्मीद करनेवाले उम्मीदवारों को मजा चखा सकती है. यह अलग बात है कि यहां भी ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है’ वाला सूत्र ही कार्य करता देखा जाता है.

यही वह मौसम है, जब लौटके सिद्धू घर को आने लगते हैं, या जब बड़े पैमाने पर सिद्धुओं की घर-वापसी होती है. ‘सिद्धू’ और ‘घर-वापसी’ पारिभाषिक शब्द हैं, जिनमें से ‘सिद्धू’ राजनीति का शब्द है, तो ‘घर-वापसी’ धर्म का, लेकिन राजनीति में भी इस्तेमाल होता है. और क्यों न हो, जब धर्म खुद राजनीति में जम कर इस्तेमाल होता है, तो धार्मिक शब्दों के राजनीति में इस्तेमाल में क्या हर्ज है? मतलब, हर्ज तो खूब है, पर कोई हर्ज समझता नहीं है.

‘सिद्धू’ किसी भी राजनीतिक दल के उस अति महत्त्वाकांक्षी नेता को कहते हैं, जिसकी केवल महत्त्वाकांक्षाएं ही अपने दल में पूरी हो रही हों, अति महत्त्वाकांक्षाएं पूरी न हो पा रही हों और इस कारण जिसे कबीर की तरह अचानक बोध होने लगता हो कि ‘रहना नहीं देस बिराना है’. जिसे अपना दल पराया लगने लगता है और दूसरे दल भाने लगते हैं. चुनाव के दौरान ही पता चलता है कि दूर के ढोल ही सुहावने नहीं होते, दूर के दल भी सुहावने होते हैं. अपने दल में पड़े-पड़े ये सिद्धू खुद को बुद्धू जैसे महसूस करने लगते हैं. दूसरे शब्दों में, उन्हें रह-रह कर यह अनुभव होने लगता है कि पार्टी-आलाकमान उन्हें बुद्धू समझता है और यही कारण है कि उन्हें कोई पद-वद नहीं देता. चूंकि राजनीति में बिना पद के कोई वद, जो कि कद का सूचक है, नहीं होता, और वे ‘बिनु पद चलै’ यानी बिना पद पाये जनता की सेवा करने में असमर्थ रहते हैं, अत: वे ऐसे दल तलाशने लगते हैं, जहां उन्हें पद के साथ वद भी मिल सके. अचानक ही उन्हें हवाओं में ‘आजा आजा, मैं हूं प्यार तेरा’ जैसे आह्वान सुनाई देने लगते हैं, जिन्हें सुन कर उनके भीतर भी ‘मैं आया, आया…’ की धुन बजने लगती है.

इस सबके कारण उनके तन-मन में कई तरह के केमिकल लोचे होने लगते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पहले तो उनके लोचन भक्क-से खुल जाते हैं और उन्हें अपनी पार्टी की वह असलियत दिखने लगती है, जो पता नहीं कैसे, अब तक नहीं दिख रही थी. उन्हें अचानक ही भान होता है कि इस पार्टी का आलाकमान तो भ्रष्ट, देशद्रोही, सांप्रदायिक, पैसा लेकर टिकट बांटनेवाला और न जाने क्या-क्या है! यह सब देख पार्टी में उनका दम घुटने लगता है.

ठीक इसी वक्त उनकी आत्मा भी जाग उठती है और मीरा की तरह आवाज देने लगती है कि ‘चाला वाही देस!’ तभी उनके साथ-साथ जनता को भी पहली बार पता चलता है कि उनके भीतर एक अदद आत्मा भी मौजूद थी, क्योंकि काम तो अब तक वे सारे इसी तरह के करते आये थे, जिनसे उनमें आत्मा का होना संदेहास्पद लगता था. अपनी आत्मा की आवाज सुन कर वे अपना मौजूदा दल छोड़ उस दल में पहुंच जाते हैं, जिसे वे अब तक दलदल बताते आये थे, और वह दल भी उन्हें मन ही मन बुद्धू और ऊपर से सिद्धू कह कर गले से लगा लेता है.

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