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अथ श्री जींस परिधान कथा

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान हाल ही में सुरेश दिल्ली से गांव लौटा है. वह हर साल दुर्गा पूजा से पहले गावं आ जाता है और फिर छठ पूजा के बाद दिल्ली लौट जाता है. गावं पहुंचने पर सुरेश के पहनावे पर मेरा ध्यान जाता है- ब्ल्यू जींस, टीशर्ट, बड़ा एयरबैग और स्मार्टफोन. सुरेश […]

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

हाल ही में सुरेश दिल्ली से गांव लौटा है. वह हर साल दुर्गा पूजा से पहले गावं आ जाता है और फिर छठ पूजा के बाद दिल्ली लौट जाता है. गावं पहुंचने पर सुरेश के पहनावे पर मेरा ध्यान जाता है- ब्ल्यू जींस, टीशर्ट, बड़ा एयरबैग और स्मार्टफोन. सुरेश को देख कर मेरा मन अचानक साल 2000 के आसपास भटकने लगता है. मुझे सुरेश के बड़े भाई महेश की याद आती है. वह जब भी दिल्ली या पंजाब से गावं आता, तो उसके हाथ में एक सूटकेस होता, जिसमें कुछ हो न हो, रेडियो जरूर रहता था. इन दोनों भाइयों के प्रवासी मन की कहानी के आधार पर पता चलता है कि इन गुजरे 15 साल में कितना कुछ बदला है.

हालांकि, जो नहीं बदला है, वह है जींस. पहनावे में जींस ने अपनी जगह बनाये रखी है. शायद यही वजह है कि बाबा रामदेव स्वदेशी जींस लाने की तैयारी में हैं.

यहां सवाल है कि क्या जींस केवल पहनावा भर है या फिर परिधान संस्कृति में बदलाव लानेवाली एक चीज? शहर से लेकर गावं तक जींस में समाये लोगों को देख कर लगता है कि जींस की कथा सुनानी ही चाहिए. आठवीं में पढ़ाई के दौरान जींस से मेरी दोस्ती हुई. ऐसी दोस्ती, जिसने मैले से भी दोस्ती करा दी. एक-दो दिन नहीं, पांच-सात दिन नहीं, पूरे महीने भर पहनने के बाद भी जींस मुस्कुराता ही रहा. जींस ने कभी यह नहीं कहा- ‘हमें भी पानी में डुबोओ, धूप में नहलाओ…’

गूगल के जमाने में विकीपीडिया पर जाकर दुरुस्त हुआ, तो पता चला कि अमेरिका से चल कर जींस ने कैसे दुनिया भर के देशों की यात्रा की और घर-घर में पहुंच बनायी. इसने कभी महिला-पुरुष में अंतर नहीं देखा. अपनी शुरुआत में अमेरिकी युवा वर्ग का यह सबसे पसंदीदा ड्रेस बन गया.

नीले रंग के जींस के दीवानों को यह पता होना चाहिए कि ब्ल्यू जींस को अमेरिकी युवा संस्कृति का द्योतक भी माना जाता है. अमेरिका में सन् 1850 तक जींस काफी लोकप्रिय हो चुका था. इस दौरान एक जर्मन व्यापारी लेवी स्ट्रॉस ने कैलिफोर्निया में जींस पर अपना नाम छाप कर बेचना शुरू किया. वहां एक टेलर जैकब डेविस उसका सबसे पहला कस्टमर बना. वह काफी दिनों तक उससे जींस खरीदता रहा. वहां कोयले की खान में काम करनेवाले मजदूर इसे ज्यादा खरीदते, क्योंकि इसका कपड़ा बाकी फैब्रिक से थोड़ा मोटा होता था, जो उनके लिए काफी आरामदायक था.

अमेरिका और दुनिया के अन्य देशों से निकल कर जींस ने भारत के शहरों और देहातों में तेजी से पांव पसारा है.

बिना किसी तामझाम के जींस ने हर घर में दस्तक दी. कहीं महंगे ब्रांड के तले, तो कहीं बिना ब्रांड के. एक समय जब पूर्वांचल के लोग दिल्ली में रोजगार के लिए आते, तो जाते वक्त पुरानी दिल्ली की गलियों से ट्रांजिस्टर, सूटकेस आदि ले जाते और अब समय के बदलाव के साथ उनके बक्शे में जींस ने भी जगह बना ली है. धोती-लुंगी के स्थान पर जींस और ढीला-ढाला टीशर्ट कब हमारे-आपके गावं तक पहंच गया, पता ही नहीं चला.

कितना बेफिक्र होता है जींस. लगातार पहनते जाओ और फिर जोर से पटकने के बाद फिर इसे पहन लो, इसकी यारी कम नहीं होगी. जितनी पुरानी जींस, उससे आपकी आशिकी उतनी ही मजबूत बनती जाती है. जींस की रंग उड़े, तो उसकी मासूमियत और भी बढ़ जाती है.

जींस की कथा में न दलित आता है न सवर्ण, यह तो सभी को सहर्ष स्वीकार कर लेता है. इसे राजनीति नहीं आती और न ही केवल एसी कमरे या फिर महंगे एसयूवी की सवारी इसे पसंद है. यह शहरों में उतनी ही मस्ती करता है, जितनी धूल उड़ती गावं की सड़कों पर…

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