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भावभीनी श्रद्धांजलि!

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार श्रद्धांजलि में पहले कभी रहती होगी श्रद्धा, अब तो सिर्फ अंजलि बची है, बल्कि उसका भी पक्के तौर पर दावा नहीं किया जा सकता. श्रद्धा में से भी उसका ‘श्र्’ कब का निकल कर गिर चुका और वह कब सिर्फ अद्धा रह गयी, इसका खुद श्रद्धा को भी अंदाजा नहीं […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

श्रद्धांजलि में पहले कभी रहती होगी श्रद्धा, अब तो सिर्फ अंजलि बची है, बल्कि उसका भी पक्के तौर पर दावा नहीं किया जा सकता. श्रद्धा में से भी उसका ‘श्र्’ कब का निकल कर गिर चुका और वह कब सिर्फ अद्धा रह गयी, इसका खुद श्रद्धा को भी अंदाजा नहीं होगा. जिस तरह से बड़े-बड़े लोगों द्वारा मृतात्माओं को श्रद्धांजलि दी जा रही है, उससे तो यही शक होता है कि वे कहीं अद्धा-पौवा चढ़ा कर तो यह काम नहीं करते?

पहले भी श्रद्धांजलि में श्रद्धा इसलिए रहती थी, क्योंकि वह श्रद्धांजलि देनेवाले के मन में भी रहती थी. मन में थी, तो तन में भी थी.

मन की वजह से तन में थी. लेकिन मन धीरे-धीरे दूसरी जरूरी चीजों से भरता गया, तो उसमें श्रद्धा जैसी फालतू चीजों के लिए स्थान नहीं बचा. वहां से खिसक कर वह आदमी की अंजलि में आ गिरी, जिससे ‘श्रद्धांजलि’ नाम सार्थक हो गया. यानी श्रद्धा, जो केवल हाथों की अंजुरी में ही है, मन में नहीं. तब से जिस किसी को भी श्रद्धांजलि दी गयी, वह प्राय: हाथों से ही दी गयी, मन से नहीं. कहने को जरूर वह भावभीनी होती, लेकिन भाव को पता भी न चलता कि वह उससे भीनी है.

यही कारण है कि पिछले दिनों जब महान लेखिका महाश्वेता देवी के दिवंगत होने पर विदेश मंत्री ने आशापूर्णा देवी की पुस्तकें उनकी बता कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी, तो ज्ञान के अभाव में वह अभावभीनी होकर रह गयी. बौद्धिक जगत कुछ-कुछ वैसे ही सन्न रह गया, जैसे कभी अखबार में यह पढ़ कर कि रामस्वरूप ने चोरी की, फलस्वरूप पकड़ा गया, अपना घोंचूमल रह गया था. घोंचूमल समझ नहीं पा रहा था कि जब चोरी रामस्वरूप ने की, तो फलस्वरूप क्यों पकड़ा गया, और कि यह कहां का इंसाफ है कि करे कोई और भरे कोई?

इससे शेक्सपियर के इस कथन पर भी मोहर लगती दिखी कि नाम में क्या रखा है? नाम में कुछ रखा होता, तो आशापूर्णा देवी की किताबों को महाश्वेता देवी की बता कर उन्हें श्रद्धांजलि न दे दी जाती. देवी होने से दोनों में इंटरचेंजेबिलिटी का गुण थोड़े ही उत्पन्न हो जाता है.

महाश्वेता जी को दी गयी यह श्रद्धांजलि आशापूर्णा जी के लिए तिलांजलि जैसी हो गयी, जिससे अनायास ही ‘एक पंथ, दो काज’ वाला मुहावरा भी चरितार्थ हो गया. वह तो गनीमत है कि आशापूर्णा देवी खुद भी बहुत पहले ही दिवंगत हो चुकी थीं, वरना अपनी किताबों से इस तरह हाथ धोने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया रहती, समझा जा सकता है. वे या तो कहनेवाले का गला घोंट देतीं या फिर अपना. क्षतिपूर्ति के लिए उन्हें भी शायद अपने दिवंगत होने का इंतजार करना पड़ जाता, जब कोई मंत्री किसी अन्य लेखक या लेखिका की किताबों को उनकी बता कर उन्हें श्रद्धांजलि देता.

श्रद्धांजलि का हालांकि मूलत: किसी के मरने-जीने से कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन पता नहीं, क्यों और कब से वह सिर्फ मरनेवालों के लिए रूढ़ हो गयी. अब हो गयी तो हो गयी, सबको उसकी लाज रखनी चाहिए, लेकिन कुछ महानुभाव जाने-अनजाने ऐसा नहीं भी करते. एक बार एक बैंक द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में मेरा जाना हुआ.

एक बड़े भाषाविद् उसके मुख्य अतिथि थे और मेरे उसमें जाने का यह भी एक बड़ा कारण था. बहरहाल, बैंक के प्रबंधक ने अपने स्वागत-भाषण में मुख्य अतिथि को जोश ही जोश में श्रद्धांजलि दे दी. बदले में मुख्य अतिथि ने भी प्रबंधक का इन शब्दों में आभार व्यक्त किया, ‘बार-बार मना करने के बाद भी आपने मुझे मुख्य अतिथि के रूप में बुला कर जो मेरा नाज उठाया, उसके बदले भगवान आपको उठाये.’

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