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किस्सों का सावन आया

प्रभात रंजन कथाकार इस बार झूमता-गाता सावन आया है. सोशल मीडिया सावनमय हो गया है. यूट्यूब से सावन छाप गीत शेयर किये जा रहे हैं. कुछ सावन के झूलों की याद कर रहे हैं, तो कुछ बारिश के रुमान में खोये हैं. सावन हिंदी फिल्मी गीतों में सबसे सेलिब्रेटेड महीना है. सबके मन के सावन […]

प्रभात रंजन
कथाकार
इस बार झूमता-गाता सावन आया है. सोशल मीडिया सावनमय हो गया है. यूट्यूब से सावन छाप गीत शेयर किये जा रहे हैं. कुछ सावन के झूलों की याद कर रहे हैं, तो कुछ बारिश के रुमान में खोये हैं. सावन हिंदी फिल्मी गीतों में सबसे सेलिब्रेटेड महीना है. सबके मन के सावन को फिल्मी गीतों ने छुआ है. वसंत ऋतु है, लेकिन सावन महीना. फिल्मी गीतों में यह मिलन की प्यास जगानेवाला महीना भी है और जुदाई की याद दिलानेवाला भी. हालत यह है कि जब भी बरसात होती है, तो लोगों को सावन याद आ जाता है.
फिल्मी गीतों के सावन के साथ-साथ सबके मन का अपना-अपना हरा सावन भी होता है. किसी के घाव हरे हो जाते हैं, किसी का मन अपने प्रिय से मिल कर हरा हो जाता है. सावन की बारिश मुझे बचपन के दिनों में ले जाती है, अपने गांव मधुवन में. जब सावन हमारे लिए फिल्मी गीतों के माध्यम से नहीं उतरता था, न वह आलंबन था, न उद्दीपन था.
सावन सिर्फ सावन था और हम उस सावन को जीते थे. सावन एक तरफ मालदह आम से एक साल की जुदाई का संदेश लिए आता था. बेस्वाद कलकतिया आम पेड़ों पर पकते थे. घर में आते थे, लेकिन हमारी दिलचस्पी आमों में खत्म हो चुकी होती थी. सावन आते ही मुझे पारिवारिकता के उस सुकून की याद आ जाती है, विस्थापन में जिसको खो चुका हूं. सावन के पहले हफ्ते में नागपंचमी के पर्व के बाद सावनी घड़ी का त्योहार आता था, जिसमें परिवार के साथ जुट कर उस बारिश में खीर-पूड़ी खाने का आनंद घर-परिवार से बहुत दूर शहर में अब किसी सावन में नहीं आता है.
सबसे अधिक जिस चीज को ‘मिस’ करने लगता हूं- सावन के आते ही वे किस्से होते हैं. कई-कई दिन न रुकनेवाली बारिश हमें घरों में बंद कर देती थी. मुझे अब भी याद आता है कि मक्कों के ढेर से दाने छुड़ाते हुए पूरा परिवार, जिसमें आसपास के नाते-रिश्तेदार भी होते थे, एक साथ आ जुटते थे और मक्के के दानों के साथ किस्सों के किरदार निकलते रहते थे. मेरे मन में दादी-नानी की कहानियों का कोई नॉस्टेल्जिया नहीं है, बल्कि मुझे किस्सों के उसी दौर की याद बार-बार आती है. वहीं सबको किस्से सुनाने का मौका मिलता था, चाहे वह नेपाल के अपने ससुराल से आयी बुआ हों या गांव के अलग-अलग टोलों से हमारे घर काम करने आनेवाले ‘जन’.
वह टीवी का दौर नहीं था. गांव में रहने के कारण रोज-रोज अखबार पढ़ने की आदत भी नहीं थी हमें. सावन के उन दिनों में जैसे हम देश-दुनिया से कट जाते थे. बस किस्से होते थे, किस्सों के किरदार होते थे.
बहुत बाद में मैं जब लेखक बना और कहानियां लिखने लगा, तो मैंने पाया कि बचपन के उन सावनों में जो कहानियां सुनी थी, कहानियों के जो प्रारूप मन में बन गये थे, उस शैली में लिखने लगा. ऐसी कहानियां जिनमें ऐसा कुछ भी न हो, जिससे परिवार के सदस्यों को शर्म आये, अर्थात सबका मनोरंजन एक समान ढंग से करें. मुझे याद आया कि अभी हाल में दिलीप कुमार की आत्मकथा में मैंने पढ़ा कि बचपन में पेशावर में उनके घर में भी इसी तरह से किस्सों की महफिल सजा करती थी, जिसमें परिवार के सभी लोग किस्से सुनाते थे. एक बार उनकी दादी ने उनके फूफा को किस्सों की महफिल से इसलिए उठा दिया था, क्योंकि उनके किस्से में अश्लीलता का पुट आ गया था.
सावन आते ही मैंने अपनी मां को फोन किया. मां ने कहा आगामी 9 तारीख को सावनी घड़ी है. लेकिन सावन में मधुबन गांव में जुटनेवाला वह परिवार अब बिखर चुका है. अब न वैसी बारिश होती है न किस्सों की वह महफिल ही सजती है.
सावन आते ही मन में किस्सों का सावन हरा हो गया!

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