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रिश्वतखोरों के भी उसूल होते हैं!

बहुत पहले फिल्म ‘मजबूर’ में अमिताभ बच्चन ने प्राण से पूछा था- माइकल, मैंने सुना है, चोरों के भी उसूल होते हैं? और जवाब में प्राण ने कहा था- तुमने ठीक ही सुना है बरखुरदार, चोरों के ही उसूल होते हैं. यही बात रिश्वतखोरों के बारे में भी कही जा सकती है. पहले भले ही […]

बहुत पहले फिल्म ‘मजबूर’ में अमिताभ बच्चन ने प्राण से पूछा था- माइकल, मैंने सुना है, चोरों के भी उसूल होते हैं? और जवाब में प्राण ने कहा था- तुमने ठीक ही सुना है बरखुरदार, चोरों के ही उसूल होते हैं. यही बात रिश्वतखोरों के बारे में भी कही जा सकती है. पहले भले ही रिश्वत और सिद्धांत परस्पर विरोधी रहे हों, पर आजादी के 68 वर्षों में इनके बीच विरोध घटा है और सौहार्द बढ़ा है. यहां तक कि रिश्वत अपने आप में एक स्वर्णिम सिद्धांत बन गया है. यही कारण है कि एक ओर सिद्धांतवादियों ने रिश्वत को अछूत मानना छोड़ दिया है, तो दूसरी ओर रिश्वतखोरों में सिद्धांतवादियों के दर्शन होने लगे हैं.

अपने एक दोस्त की लड़की की शादी के लिए लड़का तलाशने की प्रक्रिया के दौरान हाल ही में मुझे एक लड़के के पिता के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो कचहरी में बाबू के पद से ताजा-ताजा रिटायर हुए थे. अपनी भलमनसाहत की मिसाल पेश करते हुए उन्होंने बताया कि हजार रुपये के काम के किसी ने हजार दे दिये, तब तो कोई बात ही नहीं, पर किसी ने सौ भी दे दिये, तो वे भी उन्होंने बिना उफ किये चुपचाप रख लिये. मैं उनकी इस सिद्धांतवादिता के आगे शीश नवा कर चुपचाप वहां से खिसक आया.

इसी सिलसिले में मुझे अपने एक परिचित जिलाधीश याद आये, जो किसी एक मामले में केवल पांच लाख रुपये ही रिश्वत लेते हैं. इस सिद्धांत के पीछे स्वच्छ छवि वाले इस प्रशासक की यह धारणा है कि मात्र पांच लाख रुपये देनेवाला सड़क पर खड़ा होकर ढिंढोरा नहीं पीटता. ऐसे ही, एक पुलिस अधीक्षक अपने थानेदारों से हर महीने सिर्फ 50 हजार रुपये का ही लिफाफा स्वीकारते हैं. उनकी शर्त यह है कि यदि किसी भी थाना-क्षेत्र से उनके पास कोई शिकायत आयी, तो वे उस पर कार्रवाई करने में कोई रियायत नहीं करेंगे. एक दरोगा जी कभी हत्या और बलात्कार के मामलों में रिश्वत नहीं लेते. एक थानेदार फरियादी से नहीं, बल्कि मुजरिम से रिश्वत लेते हैं.

एक आबकारी अधिकारी अपने क्षेत्र के सिनेमाघरों में महीने में सिर्फ एक दिन विभाग के कर्मचारी को भेज कर टिकट-खिड़की पर हुए कुल व्यवसाय की राशि ले आने को कहते हैं. विद्युत विभाग के एक अधिशासी अभियंता वर्ष में एक बार दौरा कर बड़े-बड़े बिजली-चोरों में से आधों पर मामले बनाते हैं, शेष को सेवा का अवसर प्रदान करते हैं. एक जिला खाद्य अधिकारी अपने जिले के चुनिंदा 100 व्यापारियों से वर्ष में 50 हजार रुपये प्रति व्यापारी रिश्वत लेते हैं. वे निरीक्षकों से लिफाफे स्वीकार नहीं करते. इसी विभाग का एक निरीक्षक राशन की दुकानों से माहवारी नहीं लेता, वह केवल पेट्रोल-पंपों को ही कृतार्थ करता है. एक पटवारी किसानों की जमीन के अभिलेख में हेराफेरी नहीं करते. वे केवल प्राकृतिक विपदा के समय किसानों को शासन की ओर से मिलनेवाली राहत-राशि में से एक-चौथाई लेकर ही संतोष करते हैं.

ऐसे में, जबकि बड़े-बड़े सिद्धांतवादी रिश्वतखोरी को गले लगा चुके हों, रिश्वतखोरों का सिद्धांतवादी होना कम प्रशंसनीय बात नहीं है. ऐसे सिद्धांतप्रिय रिश्वतखोर यदि समाज में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों के रूप में जाने जाते हों, तो क्या आश्चर्य!

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

drsureshkant@gmail.com

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