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शिक्षा के प्रतिमानों के प्रति बढ़ता मान

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार शिक्षा-व्यवस्था के प्रतिमान गिरते जा रहे हैं, ऐसा एक शिक्षक ने ही मुङो शिक्षक-दिवस पर बताया. इसी से मैं समझा कि समाज में शिक्षा के प्रति मान क्यों घटता जा रहा है. खुशी की बात है कि शिक्षक भी इसे मानते हैं, पर यह मानते हुए शायद वे खुद को शिक्षा-व्यवस्था […]

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

शिक्षा-व्यवस्था के प्रतिमान गिरते जा रहे हैं, ऐसा एक शिक्षक ने ही मुङो शिक्षक-दिवस पर बताया. इसी से मैं समझा कि समाज में शिक्षा के प्रति मान क्यों घटता जा रहा है. खुशी की बात है कि शिक्षक भी इसे मानते हैं, पर यह मानते हुए शायद वे खुद को शिक्षा-व्यवस्था में शामिल नहीं मानते, जबकि इसमें खुद उनकी भी कुछ जिम्मेवारी है.

भारत ने शिक्षक को गुरु कहा. गुरु यानी बड़ा, पथ-प्रदर्शक, तम-नाशक. उसे ब्रह्म, विष्णु, महेश के समान पूजा—गुरुबह्म गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरो! इस कारण गुरु में काफी गुरूर भी आ गया, पर सबने उसे अनदेखा कर गुरु की गुरिमा, जिसे लोक-भाषा में गरिमा कहा जाता है, बनाये रखी.

आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया. पांच सितंबर को शिक्षक-दिवस भी मनाने लगे. कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा दर्जा दिया और एक बार दोनों के एक-साथ आ खड़े होने पर प्रारंभिक दुविधा के बावजूद अंतत: गुरु पर ही बलिहारी हुए.

इधर गुरु शब्द का अर्थपतन इतनी तेजी से हुआ कि उसे शीघ्रपतन कहना भी छोटी बात होगी. गुरु अब सिकुड़ कर काफी लघु हो गया है. आज का गुरु पहले के गुरु का वामन अवतार है, लेकिन सिर्फ कद में, गुणों में नहीं. अब गुरु का स्वरूप बदल गया है. अब गुरु नहीं होते, गुरु-घंटाल होते हैं.

अब वे तम-नाशक नहीं, तम-वर्धक होने लगे हैं. अंगरेजी में भी शिक्षक को भरपूर आदर देते हुए उसे मास्टर यानी स्वामी कहा गया, पर मास्टर ने वहां भी अपनी मास्टरी का भरम नहीं बना रहने दिया. यह देख लोगों ने भी मास्टर की भरपूर ऐसी-तैसी की. उसके साथ ‘दो कौड़ी का’ जैसे विशेषण लगा कर उसे उसकी औकात जता दी. लोगों ने जब देखा कि ऐसे होते हैं मास्टर, तो दूसरे व्यवसायियों को भी मास्टर कहने लगे. फिर टेलर भी मास्टर होने लगे.

शिक्षा-जगत में सरकारी स्कूलों ने अपने निकम्मेपन की बदौलत पहले तो पब्लिक से कोई ताल्लुक न रखनेवाले पब्लिक-स्कूलों के लिए जगह बनायी, फिर ट्यूशन अथवा कोचिंग-उद्योग को पनपने में सहयोग दिया. पहले ट्यूशन कोई इक्का-दुक्का, अक्ल का दुश्मन बच्चा ही लेता था.

ऐसे बच्चे को बछिया का ताऊ कहा जाता था. आज सारे बछिया के ताऊ कोचिंग-उद्योग खोल कर उसमें सभी इंटेलिजेंट बच्चों को ट्यूशन पढ़वाते हैं. देश में आज स्कूल उतने नहीं, जितने कोचिंग-सेंटर हैं. हालत यह है कि निहायत गरीब और लाचार बच्चे, जो न कोचिंग में लाखों रुपये खर्च सकते, न नकल करवाने वालों की फीस भर सकते और न फर्जी डिग्री की ही कीमत चुका सकते, ही कक्षा की पढ़ाई पर ध्यान देकर अपना भविष्य खराब करने को विवश हैं.

पिछले दिनों यह जान दिल बल्लियों उछल गया कि एक यूनिवर्सिटी के छात्रों की बिना जंची परीक्षा-कॉपियां एक कबाड़ी के पास पायी गयीं. शायद इसी कारण एक कॉलेज में जहां एक छात्र को सभी विषयों में 39-39 अंक मिले, वहीं उस सेमेस्टर के सभी छात्रों के एक विषय के अंक बराबर रहे. यूनिवर्सिटी का यह शिक्षा के क्षेत्र में साम्यवाद लाने का अनूठा प्रयास रहा.ये घटनाएं भारत में शिक्षा के उज्‍जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं, उसके बढ़ते प्रतिमानों के प्रति मान बढ़ाती हैं.

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