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सिनेमा का बदला स्वरूप

गंगेश ठाकुर पत्रकार फिल्म ‘टॉयलेट’ एक प्रेम कथा ने भारतीय सिनेमा के लिए एक नयी सोच की तस्वीर साफ कर दी है. हाल के वर्षों में जिस तरह से भारतीय सिनेमा ने ‘रियल लाइफ हीरो’ के जीवन को ‘रील लाइफ हीरो’ के साथ सजाने का काम किया है और दर्शकों ने जैसे इन फिल्मों को […]

गंगेश ठाकुर
पत्रकार
फिल्म ‘टॉयलेट’ एक प्रेम कथा ने भारतीय सिनेमा के लिए एक नयी सोच की तस्वीर साफ कर दी है. हाल के वर्षों में जिस तरह से भारतीय सिनेमा ने ‘रियल लाइफ हीरो’ के जीवन को ‘रील लाइफ हीरो’ के साथ सजाने का काम किया है और दर्शकों ने जैसे इन फिल्मों को सराहा है, उसने साफ कर दिया है कि भारतीय सिनेमा का स्वरूप बदला है. फिल्म पीकू तो याद ही होगी. हम सोच भी नहीं सकते थे कि कब्ज जैसे विषय पर भी फिल्म बन सकती है.
भारत के प्रधानमंत्री हर मंच से लोगों को स्वच्छ भारत का पाठ पढ़ाते हैं. लेकिन आज भी सड़कों पर धार मारते लोग, पटरी और झाड़ों के पीछे लोटा लेकर परम आनंद की प्राप्ति में तल्लीन लोग बहुतायत में मिल जायेंगे. कारण साफ है भारत में 54 प्रतिशत लोगों को शौच के लिए शौचालय नहीं है. ऐसे में अगर विचारधारा के बदलाव की एक कोशिश के साथ एक अजीब से विषय के साथ अक्षय कुमार जैसा कलाकार एक फिल्म के सृजन का बीड़ा उठाता है, तो यह काम बहुत ही तारीफ वाला काम है.
हमारा सरकारी तंत्र तो लोगों को शौच और शौचालय के बारे में बताने में आज तक कामयाब नहीं हो पाया. देश में टॉयलेट हर घर में हो, इसके लिए सरकार को एक आंदोलन के तौर पर काम करना होगा. केवल सोच नहीं, सरकार को अपनी योजना में बदलाव करने की जरूरत है.
आज लड़कियां सीधे तौर पर ऐसे लड़के से शादी करने से मना कर रही हैं, जिसके घर में शौचालय नहीं है. यह बहुत हिम्मत की बात है और देश को जागरूक करनेवाला कदम है.
अभिनेता अक्षय कुमार ने कुछ दिनों पहले कहा था, ‘इस फिल्म की सफलता मैं आप सभी के नाम करता हूं. हर उस बंदे के नाम, जिसने अपने घर में शौचालय बनवाया. मैं इस समस्या के नाम पर बात करना बंद नहीं करूंगा. आप सब भी इसे ना छोड़ें.’
जाहिर है, अब यह भारतीय समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है कि ये हर घर में शौचालय की मुहिम को अंजाम दें. सदियों से खुले में शौच जाने की जो परंपरा है, उसके कई खतरे हम झेलते आ रहे हैं. इसलिए जरूरी है कि हर घर में शौचालय बनवाकर उन खतरों को दूर किया जाये. सरकार को विचार करने की जरूरत है कि सही तरीके से अगर लोगों के साथ स्वस्थ संवाद किया जाये, तो वह लोगों के लिए जुनून बन जायेगा.
केवल विज्ञापनों से समाज स्वच्छ नहीं होगा. स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ संवाद और स्वच्छ सोच को पैदा करने पर जोर देना जरूरी है. साथ ही, ऐसे ही सामाजिक विषयों पर अच्छी फिल्मों के निर्माण की भी जरूरत है.

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